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तेरहवा सर्ग
फिर अन्तर्मुखी स्वदृष्टि बना, उनने भीतर को झाँका था। तन का बैभव तज चेतन का, अविनश्वर वैभव आँका था ।
शिर पर के केश लगे उनको, निज पथ के बाधक कण्टक से। इससे उखाड़ कर पञ्च मुष्टिसे दूर किया निज मस्तक से ।
टल गये केश, आ गयी अतः, अब और विशेष अटलता थी। एवं प्रारम्भ परिग्रह की-- रह गयी न शेष विकलता थी ।।
जिस जिसको समझा पर पदार्थ, उस उसको दूर हटाया था । निज के अठाइस मूल गुणोंसे निज चैतन्य सजाया था ।
मन, बचन, काय को शुद्ध बना, बैठे निश्चल परिणाम किये। दर्शक स्व वास को लौट चले,
मन में संस्मृति अभिराम लिये ।। २३