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( २० ) नहीं रह पाया। श्रेयांसि बहु विनानि, के अनुसार अनेक विन पाते गये, अतः इन्छा रहते हुये भी मैं अपने इस उद्देश्य की पूर्ति उठने शीघ्र नहीं कर पाया जितने शीघ्र हो सकती थी (Better late than never) के अनुसार बिलम्ब से ही सही चैत्र कृष्णा दशमी वीर निर्वाण संवत् २४८६ (वि० सं० २०१६) तदनुसार २२ मार्च, १९६० को अपना यह मनोरथ मूर्तिमान कर मैंने अपने में एक अनिवर्चनीय आनन्द का अनुभव किया।
शुभारम्भ के दिन से लेकर परिसमाप्ति तक की अवधि यद्यपि ५ वर्ष ६ मास १७ दिन होती है, पर इस दीर्घ अवधि में प्रस्तावना तथा २३ सर्ग क्रमशः ४ + २३ + १७ +१०+१६+१३+६+७+ ५+४+४+४+२+ +५+५+५+४+४+४+८.४ +४+६=१७२ दिनों अर्थात् ५ मास २२ दिनों में लिखे गये हैं। इस प्रकार ५ वर्ष २५ दिन ऐसे रहे जिनमें एक भी छन्द नहीं लिखा गया । यों रचना के दिनों का औसत ११.६१ प्रतिशत रहा ।
यह महाकाव्य वीर निर्वाण संवत् २४८६ में परिपूर्ण किया गया है अतएव इसमें वन्दना के २ तथा तेईस सर्गो के १०८-१०८ छन्द इस प्रकार छन्द संख्या (२३४१०८+२= ) २४८६ रखी गयी है, जो इस बात की सूचिका है कि जिस समय यह महाकाव्य पूर्ण किया गया, उस समय परम ज्योति महावीर का निर्वाण हुये २४८६ वर्ष हो चुके थे। इन २४८६ छन्दों के अतिरिक्त ३३ छन्दों की प्रस्तावना पृथक् से है, यो कुल मिलाकर २४८६ + ३३-२५१६ छन्द हैं।
मनुष्य क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों से संरम्म, समारम्भ, श्रारम्भ, इन तीन पूर्वक से मन, वचन, कर्म इन तीन की सहायता से कृत, कारित, अनुमोदना इन तीन रूप अर्थात्