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परम ज्योति महावीर १ ज्यों सौरभ पृथक स्वतन्त्र वस्तु, परतन्त्र बना पर फूलों में । त्यों तन से चेतन पृथक वस्तु, नर एक समझता भूलों में ॥
चेतन ज्यों का त्यों रहता है, तन मात्र बिगड़ता बनता है। पर इसकी अन्य विकृति अपनी
ही विकृति समझती जनता है । तन त्यों ही बदला करता है, बदला करता नर बाना ज्यों। जब यही नहीं है अपना तो, फिर इससे प्रीति लगाना क्यों ?
६ यह तो अत्यन्त अपावन है, पद-नख से शिर के बालों तक । पुजने वाले पद से, चूमे
जाने वाले मृदु गालों तक || भीतर यह महा भयानक है, बाहर दिखता अलबेला है । भीतर प्रदर्शिनी मज्जा की, वाहर सज्जा का मेला है॥ ५. अन्यत्वानुप्रेक्षा । ६. अशुच्यानुप्रेक्षा ।