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नवाँ सर्ग
निज देव-सभा में
सुख से देवेन्द्र
प्रीं नाचती
एक दिवस,
विराजे थे ।
थीं सम्मुख,
बजे रहे मधुरतम बाजे थे |
को,
थीं ।
' अन्य देवियों देवों संग,
सुन रहीं गीत
की वाणीं थीं ॥
संगीत सुधा
बैठी भी इन्द्राणी
रस पीने
कुछ समय अनन्तर ही गीतोंकी गति पर पूर्ण विराम लगा । औौ' पारस्परिक सुचर्चा से, मुखरित होने वह धाम
लगा ॥
सुरपति ने बालक 'सन्मति' की सन्मति श्र' शक्ति सराहीं थी । सुन जिसे परीक्षा 'सङ्गम' सुरने उनकी लेनी चाही थी ||
अतएव पहुँच कर 'कुण्ड ग्राम' एवं निज सर्प शरीर बना । वह आया वहाँ जहाँ क्रीड़ाकरते थे वे गम्भीर मना ||
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