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अाठवाँ सर्ग
वह ताण्डव नृत्य निरखने की, सबको थी और उमङ्ग अभी । सब चाह रहे थे, यह नर्तन - क्रम चले, न होवे भङ्ग अभी ।
पर उनकी चाह अपूर्ण रही, क्रमशः नर्तन-गति मन्द हुई ।
औ' गन्धर्वो के वाद्यों की, ध्वनियाँ भी क्रमशः बन्द हुई ॥
प्रायः समाप्त सा ही था अब, देवों का नियत नियोग सभी । पर चित्र लिखित से खड़े हुयेथे अभी वहाँ पर लोग सभी ।
हाँ, अभी इन्द्र को तीर्थकरका पुण्य नाम भी रखना था । जो भी तो हर नर-नारी को, श्रद्धा से अभी निरखना था ।
ताकाल 'वीर' इस संशा से, शोभित वे जिन राज हुये। यो निज नियोग कर पूर्ण सभी, गमनोद्यत वे सुरराज हुये।