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परम ज्योति महावीर
हो नाद मधुरता पर मोहित, पशुओं ने त्यागा तृण चरना । पनघट पर की पनिहारिन भी, भूली गागर में जल भरना ॥
यह मधुर रागिनी सुनने का, सबके ही मन में चाव हुवा । सत्वर ही गान सभाओं में, जाने का सबको भाव हुवा ।।
नीरम से नीरस अन्तम में, स्वर-रस पीने की चाह जगी । हर नर उत्साहित हो भागा, हर नारी भी सोत्साह भगी।
ध्वनि सुन निकटस्थ तपोवन से, भगकर आये मृग छोने सब । कर गान-सुधा का पान, लगेवे अपनी सुध बुध खोने अब ।।
पुर भरा नारियों नर से औ, पशुओं से पुर के रछो भरे । सब राज मार्ग औ' चौक सभी, मनुजों से चारों ओर भरे ।।