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92 / महामन्त्र णमोकार एक वैज्ञानिक अन्वेषण
मन्त्रस्य रंगों के अनुभव की प्रक्रिया
ध्वनि, प्रकाश और रंग का अविनाभावी सम्बन्ध है । इनमे क्रम को ध्वनि से प्रकाश अथवा रंग से स्वीकृत किया जासकता है। अतः स्पष्ट है कि इस समस्त चराचर जगत् के मूल मे रंग का आदि -आधार के रूप में महत्त्व है । मन्त्रो मे रंग का विशेष महत्त्व है क्योकि रंग के द्वारा एकाग्रता, ध्यान, समाधि और आत्मोपलब्धि तक सरलता से पहुचा जा सकता है। रंग से हमे इष्ट की परमेष्ठी की छवि का सधान करना सुगम एव निर्भ्रम हो जाता है ।
उदाहरण के लिए हम अरिहत परमेष्ठी के श्वेत रंग को ले सकते है । 'णमो अरिहताण' पद के उच्चारण के साथ तुरन्त हमारे तन मन अरिहन्त के गुणो की निर्मलता ( स्वच्छता-सफेदी) और काया की पवित्रता ( स्वच्छता-श्वेतिमा) का एक भाव-चित्र - एक रूपाकृति उभरती है और धीरे-धीरे हम उसका साक्षात्कार भी करते है । यदि किसी भक्त के मन मे ऐसा श्वेतवाणी दृश्य नही बन रहा है तो उसकी तन्मयता मे कही कमी है। उसे और प्रयत्न करना चाहिए। ध्यान मे सहज एकाग्रता आने पर कोई कठिनाई नही होगी । अरिहन्त परमेष्ठी की निर्मन आकृति का आभा मण्डल हमारे मन मे बनेगा ही । हा, यदि पुन पुन प्रयत्न करने पर भी सहज एकाग्रता नही आ रही है तो हमे अपने चारो तरफ अभिप्रेत रंग के अनुकूल वातावरण बनाना होगा । हमे श्वेतवर्ण के वस्त्र, श्वेतत्रार्णी माला और श्वेतवर्णी कक्ष मे बैठकर मन्त्र के इस पद का जाप करना होगा। श्वेतवर्ण की कुछ वस्तुओ को अपनी समीपता मे रखना होगा । अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभु का श्वेतवर्ण माना गया है अत उनकी श्वेतमूर्ति की समक्षता में बैठकर णमोकार मन्त्र का पूरा या केवल णमो अरिहताण का पाठ करना विशेष लाभकारी होगा। ध्यान रखना है कि ये सब साधन हैं, साध्य नहीं । स्वयं रंग भी साधन ही हैं। रग ही क्यो स्वय सम्पूर्ण मन्त्र भी तो आत्मोपलब्धि का अद्वितीय साधन ही हैं। श्वेत रंग मौलिक रंग नही है । सात मौलिक रंगो के आनुपातिक मिश्रण से बनता है । अत वास्तव मे देखा जाए तो अरिहन्त परमेष्ठी या अर्हम् मे ही सभी परमेष्ठी गति है। जिसके चित्त मे अरिहन्त की श्वेताभा का जन्म हो