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णमोकार मन्त्र और रग विज्ञान / 91
परमेष्ठी का श्यामवर्ण हैं। यह वर्ण मान्यता अति प्राचीन काल से चली आ रही है । आज यह प्रमाणित भी हो चुकी है।
हमारी जिह्वा द्वारा उच्चरित भाषा की अपेक्षा दृष्टि में अवतरित रंगो और आकृतियो की भाषा अधिक शक्तिशाली है। महामन्त्र मे निहित रगो की भाषा को स्वय में उतारने समझने से अद्भुत तदाकरता की स्थिति बनती है। पच परमेष्ठी के प्रतीकात्मक रंगो को क्रमशः ज्ञान, दर्शन, विशुद्धि, आनन्द और शक्ति के केन्द्रों के रूप में स्वीकृत किया गया है। ये परमेष्ठी पवित्रता, तेज, दृढता, व्यापक मनीषा एव सतत मुक्तिसंघर्ष के प्रतीक भी है। उक्त पच वर्गों की न्यूनता से हमारे शरीर और मन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। अरिहत परमेष्ठी-वाचक रग (श्वेत) की कमी से हमारा सम्पूर्ण स्वास्थ्य बिगडता है और हम कूपथ की और बढते हैं। हमारी निर्मलता कमजोर होने लगती है। सिद्ध परमेष्ठी वाचक लाल रग हमारे शरीर की ऊष्मा
और ताजगी की रक्षा करता है। इसकी कमी से हमारी मानसिकता बिगडती है। आलस्य और अकर्मण्यता आती है। आचार्य परमेष्ठी का पीतवर्ण है। इसकी न्यनता होने से हमारी चारित्रिक एव ज्ञानात्मक दृढता घटती है। उपाध्याय परमेष्ठी का नीलवर्ण है। इसकी कमी होने से हमारी शान्ति भग होती है। हममें उच्च स्तरीय ज्ञान और चिन्तन की कमी होने लगती है। हम अशान्त और क्रोधी हो जाते है। साधु परमेष्ठी का रग श्याम का काला माना गया है। यह रग मूल नही है। अनेक रगो के मिश्रण से बनता है। इसी प्रकार श्वेत रग भी अनेक रगों के (सात प्रमुख रगो) मिश्रण से बनता है। श्याम वर्ण की कमी हमारे धैर्य को कमजोर करती है। साथ-ही-साथ हमारी कर्मों के विरुद्ध संघर्षशीलता भी कम होती है। साध वास्तव मे तप, साधना और त्याग के प्रतीक हैं। वे निरन्तर कालिमा-कर्म-कालिमा से जूझ रहे है। अत. उन्हे सघर्षशीलता का प्रतिनिधि परमेष्ठी मान गया है । साधु परमेष्ठी अपने सीधे यथार्थ के कारण हमारे जीवन के सन्निकट होकर हममे सीधे उतरते हैं। प्राचीन ऋषियो, मुनियो और ज्ञानियो ने अपने ध्यान, मनन और अनुभव से उक्त रगो का अनुसन्धान किया है।