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24 / महामन्त्र णमोकार एक वैज्ञानिक अन्वषण
पच परमेष्ठी के महान् गुणो की अनुभूति होती है। इससे शक्तिशाली होकर वह कष्टप्रद सासारिकता से त्राण पाने में समर्थ होता है ।
मन्त्र शब्द का एक विशिष्ट अर्थ भी ध्यान देने योग्य है । मन अर्थात् चित्त की व अर्थात् तृप्त अवस्था अर्थात् पूर्ण अवस्था अर्थात् आत्म साक्षात्कार की परमेष्ठी तुल्य अवस्था ही मन्त्र है । वास्तव मे चित् शक्ति चैतन्य की सकुचित अवस्था मे चित्त बनती है और वही विकसित होकर चिति (विशुद्ध आत्मा) बनती है ।" "चित्त जब बाह्य वेद्य समूह को उपसहृत करके अन्तर्मुख होकर चिद्रूपता के साथ अभेद विमर्श सम्पादित करता है तो यही उसकी गुप्त मन्त्रणा है जिसके कारण उसे मन्त्र की अमिघा मिलती है । अत मन्त्र देवता के विमर्श मे तत्पर तथा उस देवता के साथ जिसने सामरस्य प्राप्त कर लिया है ऐसे आराधक का चित्त ही मन्त्र है, केवल विचित्र वर्ण सघटना ही नही ।" वैदिक परम्परा के अन्तर्गत समस्त मन्त्रो को त्रितत्त्वों का संगठित रूप स्वीकार किया गया है । इन तीनो तत्त्वो के बिना किसी वस्तु और मन्त्र की रचना हो ही नही सकती । ये तीन तत्त्व है - शिव, शक्ति और अणु (आत्मा) |
"शिवात्मकाः शक्तिरूपाज्ञया मन्त्रास्तथाणवा । तत्वत्रय विभागेन, वर्तन्ते ह्यमितौजसः ॥" नेत्र तन्त्र - 19
मन्त्रो के भेद
वैदिक परम्परा और श्रमण (जैन) परम्परा मे मन्त्रो का सर्वप्रथम आधार मूलमन्त्र अथवा महामन्त्र है । महामन्त्र के गर्भ से ही अन्य मन्त्र जन्म लेते है । ओम् (ॐ) पर दोनो परम्पराओ की गहरी आस्था है । इसका अर्थ अपने-अपने ढंग से दोनो ने किया है। शारदातिलक, राघव
या एवं सौभाग्य भास्कर ग्रन्थो में वैदिक (शैव-वैष्णव ) परम्परा के मन्त्रो का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । डॉ० शिवशकर अवस्थी ने उक्त ग्रन्थों की सहायता से मन्त्र-भेदो को विद्वत्तापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है । मन्त्रो को प्रमुख पाच वर्गो में विभाजित किया गया है—
* 'मन्त्र और मातृकाओ का रहस्य' पु० 190-191 - ले० डॉ० शिवशकर अवस्थी ।