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20 / महामन्त्र णमोकार एक वैज्ञानिक अन्वेषण है।" जैन साधना पद्धति जीवत्व से प्रारम्भ होकर आत्मोपलब्धि (मोक्ष प्राप्ति) मे पर्यवसित होती है। जैन साधना का मलाधार इन्द्रिय सयम एवं मनोनियन्त्रण है । महामन्त्र इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। । उक्त विवेचन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि मानव जाति को धर्म की आवश्यकता सदा से रही है और आज की परिस्थिति में सर्वाधिक है। आज मानव जाति के सास्कृतिक एवं आध्यात्मिक मल्यो मे विघटन बढ़ता जा रहा है और सभ्यता के नित नये आडम्बरो से वह स्वय को विवश भाव से जकडती जा रही है। अत सासारिक और आध्यात्मिक मूल्यो की इस स्थिति को केवल धर्म ही सम्हाल सकता है, वह ही सन्तुलन दे सकता है।
धर्म व्यक्ति को समाज या राष्ट्र की इकाई मानता है और उसके विकास मे सामाजिक विकास का सहज आदर्श देखता है, वह प्रत्येक व्यक्ति की महानता की सभावना मे विश्वास करता है। पूजीवादी व्यवस्था अन्त करण की स्वाधीनता और स्वाभाविक अधिकारो की बात करके शोपण करती रहती है। दूसरी ओर द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मे पदार्थ को प्राथमिकता देकर चेतन तत्व को उसका उपजात माना गया है और अन्त मे सामाजिक व्यवस्था और विकास को ही महत्व दिया गया है, व्यक्तिगत स्वाधीनता को नहीं। यान्त्रिक भौतिकवाद में तो जीव-तत्व को भी पदार्थ के रूप मे ही स्वीकार किया गया है । अत मावर्सवाद मे समाज को बदलकर ही व्यक्ति को बदलने की प्रक्रिया है। व्यावहारिक विज्ञान और तकनीकी विज्ञान जिनके आविष्कार से मानव बुद्धि की प्रकृति पर विजय सिद्ध हुई है। इनका सामान्य मानव पर ठीक उल्टा प्रभाव पड़ा है कि इन यन्त्रो का दासानुदास बन गया है। मानव ऊर्जा का यन्त्रीकरण हो गया है। स्पष्ट है कि आज का मानव एक खोखला एव उद्देश्यहीन जीवन जी रहा है। आत्मा की महानता का आदर्श आज लुप्त सा हो गया है। “आत्मार्थे पृथिवी त्यजेत्" का आदर्श आज केवल ऐतिहासिक महत्व की चीज बनकर रह गया है । यद्यपि आज सस्कृति और धर्म के नाम पर कुछ खद्योती कार्य होते है, पर इनसे कल्मष की जमी मोटी परते कैसे घट-कट सकती है ? अत आज मानव जाति की भीतरी ताकतो को बचाने के लिए धर्म को