________________
धर्मं और उसकी आवश्यकता / 19
भस्म हो सकता है। अतः आज उसे धार्मिक जिजीविषा की - आध्यात्मिक जिजीविषा की गतयुगो की अपेक्षा अत्यधिक आवश्यकता है। इस संदर्भ में एक अत्यन्त सटीक उदाहरण दृष्टव्य है
-ing
औरगजेब ने अपने एक पत्र मे अपने अध्यापक को लिखा है, "तुमने मेरे पिता शाहजहा से कहा था कि तुम मुझे दर्शन पढ़ाओगे। यह ठीक है, मुझे भली-भाँति याद है कि तुमने अनेक वर्षों तक मुझे वस्तुओं के सम्बन्ध मे ऐसे अनेक अव्यक्त प्रश्न समझाए, जिनसे मन को कोई सन्तोष नही होता और जिनका मानव समाज के लिए कोई उपयोग नही है । ऐसी थोथी धारणाएं और खाली कल्पनाएं, जिनकी केवल यह विशेषता थी कि उन्हे समझ पाना बहुत कठिन था और भूल जाना बहुत सरल क्या तुमने कभी मुझे यह सिखाने की चेष्टा की कि शहर पर घेरा कैसे डाला जाता है या सेना को किस प्रकार व्यवस्थित किया जाता है ? इन वस्तुओ के लिए मैं अन्य लोगों का आभारी हूं, तुम्हारा बिलकुल नही ।" आज जो संसार इतनी सकटापन्न स्थिति में फंसा है, वह इसलिए कि वह 'शहर पर घेरा डालने' या 'सेना को व्यवस्थित करने' के विषय मे सब कुछ जानता है और जीवन के मूल्यों के विषय में, दर्शन और धर्म के केन्द्रीभूत प्रश्नों के सम्बन्ध में, जिनको कि वह थोथी धारणा और कोरी कल्पनाए कहकर एक ओर हटा देता है, बहुत कम जानता है । *
विवेक पुष्ट आस्था धर्म की रीढ है। हम अनेक धार्मिक तत्वो को प्राय ठीक समझे बगैर ही उन्हे तुच्छ और अनुपादेय कहकर उपेक्षित कर देते है । विद्या प्राप्ति के पूर्व और विद्या प्राप्ति के समय तथा बाद
भी विनय गुण की महती आवश्यकता है। महामन्त्र णमोकार इसी नमन गुण का महामन्त्र है । उपाध्याय अमर मुनि जी ने अपनी पुस्तक 'महामन्त्र णमोकार' मे लिखा है - "मनुष्य के हृदय की कोमलता, समरसता, गुणग्राहकता एव भावुकता का पता तभी लग सकता है जबकि वह अपने से श्रेष्ठ एव पवित्र महान् आत्माओ को भक्ति भाव से गद्गद् होकर नमस्कार करता है, गुणों के समक्ष अपनी अहता को त्यागकर गुणी के चरणो मे अपने आपको सर्वतोभावेन अर्पित कर देता
* 'धर्म और समाज' पु० 5 - डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन् (हिन्दी अनुवाद) ।