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152 / महामन गमोकार एक बंशानिक अन्वेषण
बस वह तपस्वी का बेष बनाकर और कुछ स्वादिष्ट फल लेकर चक्रवर्ती सूभीम के पास पहुचा। उसने वे फल चक्रवर्ती को दिए। फल बहत स्वादिष्ट थे। चक्रवर्ती ने और खाने की इच्छा प्रकट की। तपस्वी ने कहा, मै लवण समुद्र के एक टापू में रहता हू, वही ये फल प्राप्त होते हैं। आप मेरे साथ चलिए और यथेच्छ रूप से खाइए। चक्रवर्ती लोभ का सवरण न कर सके और उस तपस्वी (व्यतर) के साथ चल
दिये।
जब व्यतर ममुद्र के बीच मे पहुच गया तो तुरन्त वेष बदलकर क्रोधपूर्वक बोला, "दुष्ट चक्रवर्ती, जानता है मै कौन ह ? मैं ही तेरा पुराना पाचक हू । रसोइया हूं। मै तुझसे बदला लूंगा।"
चक्रवर्ती अत्यन्त असहाय होकर णमोकार मन्त्र का पाठ करने लगे। इस महामन्त्र की महाशक्ति के सामने व्यन्तर की विद्या बेकार हो गयी। तब व्यन्तर ने एक उपाय निकाला। उसने चक्रवर्ती से कहा, "यदि अपने प्राणो की रक्षा चाहते हो तो णमोकार मन्त्र को पानी मे लिखकर उसे अपने पैर के अगठे से मिटा दो। चक्रवर्ती ने भयभीत होकर तुरन्त णमोकार मन्त्र को पानी मे लिखकर पैर से मिटा दिया। बस व्यन्तर की बात बन बैठी । मन्त्र का प्रभाव अब समाप्त हो गया। तरन्त व्यन्तर ने चक्रवर्ती को मारकर समुद्र मे फेक दिया और बदला ले लिया। अनादर करने पर महामन्त्र का कोई प्रभाव नहीं रहता, बल्कि ऐसे व्यक्ति का अपना शरीरबल एव मनोबल भी क्षीण हो जाना है। णमोकार मन्त्र के अपमान के कारण चक्रवर्ती को सप्तम नरक मे जाना पड़ा।
मन की पवित्रता, उद्देश्य की पवित्रता और शतप्रतिशत आस्था इम महामन्त्र के लिए परमावश्यक है। भक्त अज्ञानी हो, रुग्ण हो, उचित आमन मे न बैठा हो, शारीरिक स्तर पर अपवित्र हो तो भी क्षम्य है। महामन्त्र ऐसे व्यक्ति की भी रक्षा करता है और उसे शक्ति प्रदान करता है। परन्तु जानबूझकर लापरवाही और निरादर करने वालो को मन्त्र-रक्षक देवी-देवता क्षमा नही करते ।
"इत्थं ज्ञात्वा महाभव्याः कर्तव्य. परया मदा। सार पचनमस्कारः विश्वासः शर्मव. सताम् ।।"