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महामन्त्र प्रमोकार वर्ष व्याख्या (पदक्रमानुसार) / 127
का सहारा कम ही लेते हैं। ये आचार्य परमेष्ठो समष्टि, परमज्ञानी, आत्मनिर्भर निर्लोभी, निलिप्त एव गुण ग्राहक भी हैं। ये जीवन के अनुशास्ता है। ये आचारी एव आचार्य के भव्य सगम तीर्थ हैं। इनमें आचार और ज्ञान का श्रेष्ठ सम्मिलन हुआ है। यहा आचार्य परमेष्ठी के सम्बन्ध मे विचार करते समय यह विवेक दृष्टि परमावश्यक है कि इनका प्रमुख व्यक्तित्व आचार प्रधान है-प्रयोगात्मक है। ये दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाच आचार्यों का स्वय पालन करते हैं और सघ के सभी साधुओ को भी उक्न आचरण मे लीन रखते हैं । ये मेरु के समान दृढ और पृथ्वी के समान क्षमाशील होते हैं। (आचार्य परमेष्ठी के) 36 मूलगुण होते हैं-12 तप 10 धर्म, 5 आधार, 6 आवश्यक और 3 गुप्ति । ये आचार्य परमेष्ठी श्रावको को दीक्षा देते है-व्रतो में लगाते हैं। दोषी श्रावको या साधुओ की प्रायश्चित द्वारा शुद्धि भी कराते हैं। आचार्य स्वर्ण के ममान निर्मल, दीप ज्योति के समान ज्योतिर्मय हैं। उनका पीतवर्ण जीवन की पुष्टि और शुद्धता का द्योतक है।
तीर्थकर जिस धर्म मार्ग का प्रवर्तन करते हैं और चार तीर्थों कीश्रावक, श्राविका, साधु-साध्वी- स्थापना करते हैं, उन्हे विधिवत् चलाते रहने का प्रशासनिक उत्तरदायित्व, आचार्य परमेष्ठी का होता है। ___ आचार्य परमेष्ठी पच परमेष्ठी के ठीक मध्य में विराजमान है। अरिहन्ता और सिद्धो को धर्म परम्परा युगानुरूप विवेचन करनेकराने मे ही आचार्य परमेष्ठी की महत्ता है। स्पष्ट है कि आचार्य परमेष्ठी अरिहन्तो और सिद्धो से सब कुछ ग्रहण करते हैं तो दूसरी
ओर उपाध्यायो और साधु परमेष्ठियो मे अपना चारित्रिक एव अनुशासनात्मक सन्देश भरते रहते हैं। आगे चलकर आचार्य को साधु या मुनि वेष धारण करके ही मुक्ति प्राप्त करना है । अत इस दृष्टि से साधु का स्थान ऊचा ही है। बस बात इतनी ही है कि साधु अवस्था तक पहुचने की स्थिति का निर्माण, आचार्य परमेष्ठी द्वारा ही होता है मत आधारशिला के रूप मे आचार्य परमेष्ठी की महत्ता को स्वीकार करना ही होगा। किसी भवन या दुर्ग के लिए नीव की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। “आचार्य वे हैं जिनका ज्ञानयुक्त आचरण स्वय को श्रेष्ठ