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हिंसा अनूत तसकरी, अब्रह्म परिग्रह पाप । मreetतं त्यागवो, पंच महाव्रत थाप ॥ ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान । प्रतिष्ठापनाजुत किया, पांच समिति विधान || सपरस रसना नासिका, नयन श्रोत्रका रोध । पठ आवशि मजन तजन, शयन भूमि का शोध ॥ वस्त्र त्याग केशलोच अरु, लघु भोजन इकबार । वतन मुख में ना करं, ठाड़े लेहि आहार ॥
साधर्मो भवि पठन को, इष्ट छतीसी ग्रन्थ । अल्प बुद्धि बुधजन रच्यो, हितमित शिवपुर पथ ॥
श्रद्धा के साथ आवश्यक है भावना की शुद्धि । णमोकार मन्त्र जपते समय मन मे बुरे विचार, अशुभ सकल और विकार नही आने चाहिए। मन की पवित्रता से हम मन्त्र का प्रभाव शीघ्र अनुभव कर सकेंगे। मन जब पवित्र होता है तो उसे एकाग्र करना भी सहज हो जाता है ।
भक्ति मे शक्ति जगाने के लिए समय की नियमितता और निरन्तरता आवश्यक है । मन्त्रपाठ नियमित और निरन्तर होने से ही वह चमत्कारी फल पैदा करता है । हा, यह जरूरी है कि जप के साथ शब्द और मन का सम्बन्ध जुडना चाहिए । पातंजल योग दर्शन मे कहा है - तज्जपस्तदर्थ भावनम् - वही है, जिसमे अर्थभावना शब्द के अर्थ का स्मरण, अनुस्मरण, चिन्तन और साक्षात्कार हो ।
- जप
- साधना मे सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, चित्त की प्रसन्नता । जप करने का स्थान साफ, स्वच्छ होना चाहिए। आसपास का वातावरण शान्त हो, कोलाहलपूर्ण नही हो । जिस आसन पर या स्थान पर जप किया जाता है, वह जहा तक सम्भव हो, नियत, निश्चित होना चाहिए। स्थान को बार-बार बदलना नहीं चाहिए। सीधे जमीन पर बैठकर जाप करना उचित नही माना जाता । साधना, ध्यान आदि के समय भूमि और शरीर के बीच कोई आसन होना जरूरी है। सर्वधर्मं कार्यं सिद्ध करने के लिए दर्भासन (दाभ, कुशा) का आसन उत्तम माना जाता है। पूर्व या उत्तर दिशा मे मुख करके साधना-ध्यान करना चाहिए। पद्मासन या सिद्धासन जप का सर्वोत्तम आसन है। जप के लिए ऐसा समय निश्चित करना साथ बैठ सके। भाग-दौड का व्यर्थ ही मानसिक तनाव और मन नहीं लगता । एकान्त मे, करना चाहिए।
हिए जब साधक शान्ति और निश्चितता के समय जप के लिए उचित नही होना, इससे उतावली बनी रहती है। जिन कारण ध्यान मे आलस्य रहित होकर शान्त मन से मन-ही-मन जर