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दिगंबर जैन.
आ विचार तेणीना मनमां आवतांज तेणीनो कांई नक्की विचार थयो अने ते साथे तेणी व्हेना. हाथने झाटको मारी ओरडीनी बहार नीकळी गई.
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पोतानो दाव साधवा माटे जे व्यवस्था द्युतकारे करी होय अने ते नष्ट थतां जे तेनी अवस्था थाय तेंवी स्थिति रुपसुंदरीना पतिनी थई ! ते त्यांथी न्हासेली जोई व्हेना शरीरमां भडको सलग्यो. दुःखथी, क्रोधथी अने पश्चातापथी व्हेनुं माधु फरवा लाग्युं, तथापि पोताना आ सर्व मनोविकार दबावाने ते तेणीनी पाछळ दोड्यो !
रुपसुंदरी ओरडीनी बहार नीकळतांज सासु-ससराना शयनगृहमा पेठी, एटलामां पण त्यां जई तेणीनो हाथ पकडी बहार खेंचवा लाग्यो. कदि पण नहीं अने आजे पोतानो पुत्र आटलो अमर्यादशील केम बन्यो, एनो ते वृद्ध युगलने संशय थयो ! बाकी ते पोतानो पुत्र नहीं होय एवी शंका लावा कोई कारण नहोतुं .
" बेउने कांई प्रेमकलह थयो हशे, छोकरानी जात छे ! " एवो विचार ते वृद्धोना मनमां आववाथी, तेओए रुपसुंदरीने व्हेनी साथै जवा माटे कयुं, परंतु ते उपरथी रुपसुंदरी एकदम बोली :- " सासु बा ! अहीं कई पण दगा जेवुं जाय छे. हमे सारूं कहो के माटुं कहो, परंतु आ माणसने हुंम्हारा शरीरे हाथ अडकाडवा दईश नहीं ! पछी हमे बधां मळीने म्हारो जीव लेशो, तोपण बहेतर छे !" हवे तेणीनो संशय वधारे दृढ थयो.