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प्राणी को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से किसी भी
प्रकार का कष्ट पहचाना-द्रव्य हिंसा है। इन दोनो भेदो मे भाव हिंसा ही प्रधान है। अपने मन में किसी भी प्राणी के प्रति किसी प्रकार की दुर्भावना आने मात्र से ही हम अपने शुद्ध भावो का घात कर लेते है और अपने शुद्ध भावो का घात ही हिसा है। हमारे मन की दुर्भावना कार्यान्वित हो या न हो, और उससे किसी प्राणी को कष्ट पहुचे या न पहुचे, परन्तु इन दुर्भावनाओ के आने मात्र से ही हम हिंसा के दोषी अवश्य हो जाते है। इस लिए यदि हमको सच्चा अहिंसक बनना है तो हमारे मन मे भी किसी के प्रति किसी प्रकार की भी दुर्भावना नहीं आनी चाहिये।
भगवान महावीर ने हिसा चार प्रकार की बतलाई है (१) सकल्पी, (२) विरोधी, (३) आरम्भी और (४) उद्योगी।
(१) सकल्पी हिंसा ---जो हिंसा जान-बूझकर, सकल्प करके, योजना बनाकर की जाती है-वह सकल्पी हिंसा कहलाती है । जैसे मासाहार के लिए पशुओ, पक्षियो, मछलियो आदि जीवो का स्वय वध करना अथवा इनका मास खरीद कर खाना, धर्म के नाम पर अथवा अन्य किसी विशेष प्रयोजन से देवी-देवताओ को प्रसन्न करने के लिए पशुओ की बलि देना, अपने मनोरजन के लिए पशु-पक्षियो और मनुष्यो को आपस मे लडाना, शिकार खेलना, क्रोध से अथवा बदला लेने के लिए किसी को मानसिक और शारीरिक कष्ट पहुचाना, किसी के धन, स्त्री, सन्तान आदि का अपहरण करना, किसी को कटु वचन बोलना, मांस, रक्त, चमडा, हड्डी आदि प्राप्त करने व औषधि बनाने के