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था और पशु-पक्षियो को मारकर खाता था । कुछ काल के पश्चात् उसने पशु-पक्षियो को पेड पर उगे हुए फलो को खाते हुए देखा तो उसने भी उन फलो को चखा । वे फल उसको मास से भी अधिक स्वादिष्ट लगे तब उसने फलो को खाना प्रारम्भ कर दिया और मास का सेवन कम कर दिया। फिर कुछ काल और बीता । मनुष्य अधिक सभ्य हुमा और उसने फल उगाना व खेती करना सीख लिया । तब वह अनाज, फल व सब्जी उत्पन्न करने लगा। पशुओ का मास खाने के बजाय वह उनका दूध पीने लगा और उन पशुओ से अपना भारी काम कराने लगा । इस प्रकार जैसे-जैसे मनुष्य सभ्य व सुसस्कृत होता गया वह मास का सेवन कम करता गया और शाकाहार का सेवन बढाता गया । इस प्रकार इतिहासकार बताते हैं कि मासाहार असभ्यता की निशानी है और शाकाहार सभ्यता की । यह कथन किसी शाकाहारी इतिहासकार का नही, अपितु मासाहारी इतिहासकारो का है। इसलिए यदि हम वास्तव मे सभ्य व सुसंस्कृत बनना और कहलाना चाहते है तो हमको मासाहार का त्याग कर देना चाहिए ।
देखने मे भी मास घिनौना और ग्लानि पैदा करने वाला दिखलाई देता है, जबकि फल देखने से ही आखो व मस्तिष्क में ठण्डक व ताज़गी पहुचाते हैं । बेचने वाले भी फल-सब्जियो को सजा कर रखते हैं, जबकि मास को ढक कर । मास के लिये जहा पर पशुओ का बघ किया जाता है वहा का दृश्य तो इतना वीभत्स और करुणाजनक होता है कि अधिकाश आदमी तो वहीं खडे भी नही रह सकते ।
एक बात और भी है, अग्रेजी न जानने वाले भी मास को मास न कह कर उसको मीट (Meat ) कहते हैं । जिस
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