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वह भी निराधार है। मासाहार से हम निर्दयी व कर तो अवश्य बन जाते हैं, परन्तु बहादुर नहीं। हम प्रतिदिन देखते है कि एक गुण्डा किसी की जेब काटकर, किसी का बटुवा छीन कर, किसी के साथ मार-पीट करके, किसी की हत्या करके आराम से चला जाता है, परन्तु मासाहारी व्यक्तियो का भी यह साहस नही होता कि उसको पकड ले। यदि मासाहार से बहादुरी बढती होती, तो आज ससार में अपराधों की संख्या बढ़ने के स्थान पर कम हो गयी होती; क्योकि ससार मे अधिकतर व्यक्ति मासाहारी ही है। वे सब मासाहारी व्यक्ति बहादुर होते और या तो अपराधी को अपराध ही नहीं करने देते और यदि वह अपराध कर भी चुका होता तो उसे तुरन्त पकड लेते । वास्तव में मासाहारी की अपेक्षा शाकाहारी व्यक्तियो मे स्फूति और सहनशीलता अधिक होती है और वे मासाहारियो की अपेक्षा अधिक समय तक परिश्रम कर सकते है।
(६) कुछ व्यक्ति यह कहते हैं कि मास स्वादिष्ट होता है । परन्तु यह बात भी ठीक नहीं है । यदि मास स्वादिष्ट होता तो इस को भी फलो की तरह बिना पकाये और बिना घी मसाला डाले खा लिया करते। इसके विपरीत इसको पकाकर और इसमें घी व मसाले डालकर इसको स्वादिष्ट बनाया जाता है।
यदि हम आर्थिक दृष्टि से भी विचार करें तो मास से अनाज बहुत सस्ता होता है और शाकाहार से निर्धन वर्ग भी अपना पेट भर सकता है।
(७) कुछ व्यक्ति यह कहते हैं कि मास तो पशु-पक्षी को मारकर ही प्राप्त किया जाता है, इसलिए इसे प्राप्त करने में हिंसा होती है। परन्तु अण्डे तो मुर्गियों को बगैर
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