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हिंसा मे हजारों गुना पाप है। इसी प्रकार छठी श्रेणी के जीवो की हिंसा में तो बहुत अधिक दोष होता है और मनुष्यो की हिंसा में सबसे अधिक दोष होता है। इस तथ्य को देखते हुए कोई भी विवेकशील व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि पहली श्रेणी वाले जीवो को हिंसा छठी श्रेणी वाले जीवों की हिंसा के बराबर ही है। इसका अर्थ यह नही है कि हम निचली श्रेणी के जीवो की हिंसा करते रहे। इसके विपरीत हम जो भी कार्य करे बहुत सावधानीपूर्वक और करुणा की भावना से करें, जिससे यथासम्भव किसी भी जीव को कष्ट न होने पावे। हम भोजन भी इतना ही करें, जितना कि शरीर के लिए आवश्यक हो। जितना सादा व कम मात्रा मे हम भोजन करेंगे उतनी ही हिंसा भी कम होगी। इसके अतिरिक्त ऐसा भोजन करने से हम बीमार भी नही पडेंगे और हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा।
(३) कुछ व्यक्ति यह कहते है कि यदि हम अनाज व फल खायेंगे तो उनमे भी जीवन होने के कारण बहुत से जीवो की हिंसा होगी, परन्तु यदि हम मास खायेंगे तो केवल एक पशु को ही हिंसा होगी। इसलिए शाकाहार में अधिक पाप है और मासाहार मे कम।
इन व्यक्तियो का यह तर्क ठीक नहीं है। जैसा कि हमने ऊपर बताया कि वनस्पति जीव की हिंसा की अपेक्षा एक पशु की हिसा मे लाखो गुना पाप होता है। - इसके अतिरिक्त एक पशु मे केवल एक ही जीव नहीं होता। उस पशु के शरीर मे भी लाखो सूक्ष्म जीव होते हैं, जो उस पशु के शरीर के आधार पर रहते हैं। उस पशु को मारने से उन सब जीवो की हत्या का पाप भी लगेगा। कच्चे मास मेव पके मास मे भी प्रति क्षण कीटाणु उत्पन्न
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