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खाया जाता, क्योकि वह विर्षला हो जाता है। इसलिए यह तथ्य है कि बिना हिंसा के हम मास प्राप्त नहीं कर सकते। अतः जो मासाहार करता है वह शत-प्रतिशत हिसक है। किसी भी अन्य जीव के मास से अपना पोषण करना कहा की नीति और न्याय है ? क्या मनुष्यों की भाति पशु-पक्षियो को भी जीने का अधिकार नहीं है ?
(२) मासाहार के पक्ष मे एक तर्क यह दिया जाता है कि सारे ससार मे सूक्ष्म जीव भरे पडे हैं, वनस्पति व अनाज मे भी जीवन होता है तथा जब तक हम जीवित हैं तब तक इनकी हिंसा होती रहनी अवश्यम्भावी है, फिर केवल मासाहार का ही निषेध क्यों किया जाये?
यह ठीक है कि ससार मे पूर्ण अहिंसक बनकर रहना असम्भव है, परन्तु इसका तात्पर्य यह तो नही कि हम अनावश्यक हिंसा भी करते रहें। हम पहले भी कई बार कह आये है कि हिंसा का हमारे मन के भावो से गहरा सम्बन्ध है। जीवन के आवश्यक क्रिया-कलाप करते हुए जो हिंसा हमसे हो जाती है वह हम जान-बूझकर नही करते और उस हिंसा से हमारा कोई स्वार्थ भी सिद्ध नहीं होता। वह हिंसा तो लाचारी मे हो जाती है। परन्तु मास प्राप्त करने के लिये तो एक जीव का जान-बूझ कर बध किया जाता है। यह हिंसा सकल्पी हिंसा के अन्तर्गत आती है। जो हिंसा करना हमारे लिए आवश्यक नहीं है और जिस हिंसा से हम आसानी से बच सकते हैं, ऐसी निरर्थक हिंसा क्यों की जाये ? ___ यहाँ एक तथ्य और भी विचारणीय है। ससार में प्राणियो के पाच इन्द्रियां-यथा स्पर्शन (शरीर), रसना (जिल्हा), प्राण (नाक), चक्षु (आखें) और कर्ण (कान)