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मानकर और जिसके क्षणिक सुख के लिये यह जीव सब प्रकार के अच्छे, बुरे व हिंसा के कार्य कर रहा है, वह शरीर भी उसका अपना नही है। यह शरीर केवल एक जन्म का ही साथी होता है। अनादि काल से जन्म-मरण करते हुए इस जीव ने कितने शरीर धारण किये हैं, क्या कोई उनकी गिनती कर सकता है ? हाँ, इस जीव की आत्मा सदैव से वही एक ही है और अनन्त काल तक वही रहेगी। वस्तुत तो हम आत्मा ही हैं। अत हमे इस शरीर को सुख देने की ओर ध्यान न देकर अपनी आत्मा का कल्याण करने की ओर ही ध्यान देना चाहिए। जिस क्षण भी हम अपने को आत्मा और इस शरीर को पर मानकर तदनुसार आचरण करना प्रारम्भ कर देंगे, हमारे दुख के कारण स्वयमेव ही दूर होते जायेगे।।
भगवान महावीर ने आगे बतलाया कि किसी भी जीव को सुख व दुख देने वाले कोई अन्य जीव नहीं हैं, अपितु पूर्व मे किये हुए उसके स्वय के अच्छे व बुरे कर्म ही है। दूसरे जीव तो केवल निमित्त मात्र ही होते हैं। जिस प्रकार कोई व्यक्ति हमे शस्त्र से घायल कर देता है तो हम उस शस्त्र को नही, अपितु उस शस्त्र के चलाने वाले व्यक्ति को ही अपराधी मानते हैं। ठीक इसी प्रकार किसी भी जीव को सुख व दु ख देने में वास्तविक कारण उसके अपने ही द्वारा पूर्व मे किये हुए अच्छे व बुरे कर्म होते है, न कि वे जीव जिनके द्वारा ये दुख व सुख मिलते हैं । इस तथ्य को हृदयंगम करके हमे अपने को सुख मिलने मे निमित्त बनने वाले जीवो के प्रति राग और अपने को दुख देने मे निमित्त बनने वाले जीवो के प्रति द्वेष न करके, इन सुखों व दुखो को अपने ही कर्मों का