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धर्म होता है ? क्या इससे हिन्दुओं के ईश्वर और मुसलमानो के अल्लाह प्रसन्न होते हैं ? क्या इससे किसी की मनोकामनाए पूरी हो सकती हैं ?
यदि हम वेदो का अवलोकन करे तो उसमे ऐसे अनेको मन्त्र पाएंगे जिनमे बतलाया गया है कि हिंसा करना महापाप है और हिंसा करने वाला घोर नर्क मे जाता है। जिन वेदो मे इस प्रकार असन्दिग्ध शब्दो मे हिंसा को महापाप बतलाया गया हो उन्ही वेदो में हिंसा का समर्थन कैसे किया जा सकता है ? तथ्य यह है कि वेद किन्ही एक ही ऋषि द्वारा एक ही समय मे रचे हुए नहीं हैं, वरन् इनकी विभिन्न ऋचाए, विभिन्न समयो मे विभिन्न ऋषियो द्वारा रची गई हैं। जिन ऋषि की जैसी मनोवृत्ति हुई उन्होने वैसी ही ऋचाए बना दो। जो ऋषि दयालु व सयमी थे उन्होने हिंसा करना पाप बतलाया। जो ऋषि मासलोलुपी और इन्द्रियो के दास थे उन्होने पशुओ की बलि देने के समर्थन मे ऋचाए बना दी। स्मृतियो मे तो स्पष्ट रूप से इन सभी का एक साथ विधान किया गया है। बहुत से स्थानो पर ऐसा भी हुआ है कि एक ही शब्द के दो अर्थ होने के कारण व्यक्तियो ने अपनी-अपनी मनोवृत्ति के अनुकूल इन द्वयर्थक शब्दो के अर्थ लगा लिये। उदाहरण के लिये हम 'अज' शब्द को लेते है। इसका एक अर्थ है, "पुराना धान जो फिर से न उग सके", इसका दूसरा अर्थ है 'बकरा' । जो विद्वान, सयमी तथा दयालु थे उन्होने इसका अर्थ पुराना धान माना, किन्तु जो विद्वान मांसलोलुपी थे उन्होने इसका अर्थ बकरा माना। इसी प्रकार प्राचीन काल मे: