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मन्दिर-शिखर के साथ एक सौ अडक या अग-शिखर होंगे।
उपर्युक्त सात और ये पच्चीस, -इनके अतिरिक्त चौसठ या और भी अधिक प्रकार के मंदिर कभी-कहीं बनाये गये या नहीं-यह शोध-खोज का विषय है।
जैनमंदिर का एक शास्त्रीयरूप __मनुष्यों और देवों के आवास-गृहों की भाँति जिनालयों अर्थात् जैनमंदिरों के वर्णन भी लोक-विद्या के ग्रंथों और साहित्य में विस्तार से मिलते हैं। इन वर्णनो से ज्ञात होता है कि जैनमंदिर वास्तव में किस आकार-प्रकार का होना चाहिए । तिलोय-पण्णत्ती' का एक वर्णन संक्षेप में प्रस्तुत है-“भवनवासी देवों के भवनों का आकार सम-चतुष्कोण है। भवन की चारों दिशाओं में एक-एक वेदिका है" जिसके बाह्य भाग में अशोक, सप्तच्छद, चंपक और आम के उपवन हैं। इन उपवनों में चैत्यवक्ष हैं। प्रत्येक चैत्यवृक्ष की चारों दिशाओं मे तोरण, अष्टमंगल और मानस्तम्भ के साथ जिन-प्रतिमाएँ विराजमान हैं। वेदिकाओं के मध्य मे महाकूट (विशाल टीले) और उन पर एक-एक जिनालय है।
जिनालय तीन प्राकारों (कोटों) के मध्य स्थित है। प्रत्येक प्राकार की चारों दिशाओं में एक-एक गोपुर (विशाल प्रवेश-द्वार) है, इन प्राकारो के बीच की वीथियों (मार्गों) में एक-एक मान-स्तभ, नौ-नौ स्तूप, वन, ध्वजाएँ
और चैत्य होते हैं। जिनालयों की चारों ओर के उपवनो मे तीन-तीन मेखलाओं से युक्त वापिकाएँ (कटावदार बावड़ियाँ) हैं। जिनालय महाध्वजाओं और क्षुद्रध्वजाओ से अलंकृत हैं। महाध्वजाओं में माला, सिंह, गज, वृषम, गरुड, मयूर, अम्बर (आकाश) हंस, कमल और चक्र की आकृतियाँ 2 चित्रित हैं।
जिनालयों मे5 वंदन, अभिषेक, नृत्य, सगीत, और प्रकाश के लिए तो अलग-अलग मंडप होते ही हैं; क्रीडा-गृह, गुणन-गृह (स्वाध्याय-शाला) और पट्टशालाएँ (चित्र-शालाएँ) भी होती हैं। जिनालयों में जिनेन्द्र की मूर्तियों के अतिरिक्त देवच्छन्द (देव-कुलिका, या दीवाल मे बना हुआ आला) मे अष्ट. मंगल (झारी, कलश, दर्पण, ध्वज, चामर, छत्र, व्यजन, सुप्रतिष्ठ अर्थात् पुस्तक रखने की रिहल) भी विराजमान होते हैं। जिनेन्द्र-प्रतिमाओं की दोनों ओर चामरधारी नागों और यक्षों के युगल खड़े होते हैं। जन वास्तु-विधा
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