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मणि-मय मंगल-कलश स्थापित हैं। तरह-तरह के स्वच्छ वस्त्रों से बनी चाँदनी से लटकती मोतियों की मालाओं से वह अलकृत है। वह, मानों, एक वैभव-पूर्ण जनवासा (बारातघर) है, जिसमें मुक्ति-रूपी वधू स्वयंवर द्वारा विवाह रचाने आई है। उस वास्तु-मंडप में जो विशाल-से-विशाल चैत्यआयतन (मूर्तियों के लिए अलग-अलग प्रकोष्ठ) हैं, उनमे अच्छे-से-अच्छे और अधिक-से-अधिक सब प्रकार के द्रव्य तैयार रखे हैं। उसका आकर्षण बढ़ रहा है उन बड़े-बड़े उत्सवों से, जो जिन-देव के कल्याणकों के उपलक्ष्य में आयोजित हैं। जैन मंदिरों का नामकरण
मंडप के भेदो और मंदिर के प्रकारों (अग्रलिखित) के जो नाम हैं, वे भी कई दृष्टियों से शोध-खोज के विषय हैं। यह बहुत ही उल्लेखनीय है कि इनमें से कई नाम इतिहास, पुराण, कोष, शकुन-शास्त्र, रत्न-शास्त्र आदि के प्रमुख शब्द हैं। कुछ मदिरों के नाम उनके निर्माताओं के नाम से भी चल पड़े हैं। कुछ मंदिर आकार-प्रकार आदि की दृष्टि से यथानाम-तथागुण हैं। आलंकारिक नाम कम हैं। जबकि अधिकांश मंदिरों के नाम उनके मूलनायक के नाम से चलते हैं। देव-देवियों के नाम से जैनमंदिरों के नाम बहुत कम हैं और जो हैं, उनमे भी मूलनायक तीर्थकर-मूर्ति ही होती है। मंदिर (जिन-प्रसाद) के प्रकार __ जैनमन्दिर रचना की दृष्टि से कई प्रकार के होते हैं। प्रकारों की सख्या भी अलग-अलग लिखी मिलती है। 'वत्यु-सार-पयरण' में लिखा है: श्री-विजय, महापद्म, नंद्यावर्त, लक्ष्मी-तिलक, नर-वेद, कमल-हंस और कुंजर-ये सात प्रासाद जिन भगवान के लिए उत्तम हैं। विश्वकर्मा ने जिनमदिर के प्रकारो के असख्य भेद कहे, उनमे से पच्चीस अतिश्रेष्ठ माने गये है: केशरी, सर्वतोभद्र, सुनदन, नंदिशाल, नंदीश, मंदिर, श्रीवत्स, अमृतोद्भव, हेमवंत, हिमकूट, कैलाश, पृथ्वीजय, इंद्रनील, महानील, भूधर, रत्नकूट, वैडूर्य, पद्मराग, वजांक, मुकुटोज्ज्वल, ऐरावत, राजहंस, गरुड, वृषभ और मेरु। -इनमे से प्रथम 'केशरी' के शिखर के साथ चारों ओर एक-एक छोटा शिखर होता है, जिसे 'अडक' या 'अंग-शिखर' कहते हैं। दूसरे ‘सर्वतोभ्रद' के शिखर के साथ आठ, तीसरे के बारह, इस तरह प्रत्येक के साथ चार 'अंडक बढ़ते-बढ़ते पच्चीसवें मेरु' नामक प्रकार के (जम वास्तु-विद्या