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दिशा का विवेक
भूमि के चयन में दिशा का महत्व __"दिशा बदलते ही दशा बदलती है", -यह कथन कई दृष्टियो से सार्थक है। वास्तु-विद्या मे भी दिशा या डायरेक्शन का बड़ा महत्त्व है। दिशाओं और उनके अधिष्ठाता देवो के नाम स्वस्तिकाकार35 दिशा-सूचक यत्र में द्रष्टव्य हैं।
अधिष्ठाता का मतलब है-व्यावहारिक प्रधान; जो आज के महत, निदेशक और सुपरिंटेडेट का मिला-जुला रूप होता है। प्रत्येक दिशा का एक अधिष्ठाता देव होता है -यह पौराणिक मान्यता है। इस मान्यता में इतिहास और विज्ञान की अपेक्षा श्रद्धा का भाव अधिक है। वास्तु-विद्या में अधिष्ठाता देवो की प्रकृति देखकर ही यह निर्धारित किया गया है कि किस दिशा में क्या बनाया जाए? जैसे आग्नेय अर्थात् दक्षिण-पूर्व रसोईघर के लिए निर्धारित की गयी है, ताकि गर्मियों में दक्षिण-पश्चिम दिशा से चलने वाली हवा उसमे आग न भड़का सके। दिशा का प्रकृति से तालमेल
प्रत्येक दिशा और विदिशा का प्रकृति के किसी एक रूप से विशेष संबंध है: उत्तर और ऐशान का जल से; पूर्व और आग्नेय का अग्नि से; दक्षिण और नैर्ऋत्य का पृथ्वी से; पश्चिम और वायव्य का वायु से। इसलिए भवन या कक्ष (कमरा) के उपयोग का तालमेल उसकी दिशा के प्रभावक तत्त्व से बैठाया जाए, ताकि प्रकृति उस उपयोग मे साधक बने, बाधक नहीं। प्रकृति का साधक बनना ही 'शुभयोग' या 'इष्टसिद्धि' है और बाधक बनना ही 'अशुभयोग' या 'अनिष्टसिद्धि' है।
प्रकृति की व्याख्या मे कभी-कहीं मतभेद दिख जाते है। उनसे पसोपेश मे पडे बिना वह मत (पथ) अपना लिया जाए, जिस पर महाजन चला करते होः "महाजनो येन गतः स पन्थाः। 25 किसी कवि ने ठीक ही लिखा है: 'ज्योतिष, तत्रशास्त्र, शास्त्रार्थ, वैद्यक और शिल्पशास्त्र में भावार्थ ग्रहण
(जन वास्तु-विधा