________________
समान प्रतीत होती है तथा इसकी लिच्छवी परिषद् 'देवताओं की परिषद्' के समान आनंदकारी लगते हैं।" - इससे स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध बोधि- प्राप्ति के बाद भी वैशाली नगर की गरिमा को देखकर कितने भावविभोर हो गए थे।
नगर- विन्यास : एक अनुचिंतन
वैशालीनगरी के वर्णन के समान ही अन्य कई नगरियों के वर्णन जैनग्रन्थो में प्राप्त होते हैं। ऐसे वर्णनों में द्वितीय जम्बूद्वीप' की पाताल नगरियों के वर्णन नगर - विन्यास आदि की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
'द्वितीय जंबूद्वीप का वर्णन 'तिलोयपण्णत्ती' पर आधारित है, जिसका लेखन 176 ई. से 609 ई. के मध्य 'गुप्तकाल मे या उसके कुछ पूर्व हुआ था। यह भारतीय इतिहास का स्वर्ण-युग था; तिलोयपण्णत्ती' के प्रायः सभी वर्णन इसके प्रमाण हैं। उसमें स्थान-स्थान पर उल्लिखित विभिन्न प्रकार की नगर योजनाएँ और भवनों की विन्यास- रेखाएँ (ले आउट प्लान) संस्कृति और पुरातत्त्व की महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती हैं। नगरियाँ योजनों लंबी-चौड़ी होती थीं। जैनमंदिर और उपवन उनमें अवश्य होते थे। प्राकारों और गोपुरों की अनिवार्यता थी। भवन और प्राकार न केवल ऊँचे होते थे, उनकी नींव भी बहुत गहरी (अवगाह) खोदी जाती थी ।
राजांगण एक विशाल, सर्व-सुविधा- सपन्न, सुदृढ़ और अलंकृत दुर्ग होता था; जिसकी चारो ओर योजनाबद्ध भवनों की पंक्तियाँ होती थीं। नगरी मे ज्यों-ज्यों बाहर से भीतर की ओर बढ़ा जाता, त्यों-त्यों भवनों की ऊँचाई भी बढ़ती जाती थी। भवनों की गणना रेखागणित के आधार पर की जा सकती थी । सार्वजनिक उपयोग के लिए सभागृह (विशाल हाल ) होते थे। उनमें से सुधर्मा सभा, उपपाद सभा, अभिषेक सभा, अलंकार सभा और मत्र सभा उल्लेखनीय थीं । भवनों की साजसज्जा रत्नों, स्वर्ण, चित्रकारी, पताकाओं आदि द्वारा होती थी और उनमें नृत्य, संगीत आदि के आयोजन होते रहते थे। उपवनो में अशोक, सप्तपर्ण, चंपक, आम आदि की प्रधानता थी । चैत्यवृक्ष को विशेष महत्त्व दिया जाता था ।
'गुप्त युग' के जो कुछ मंदिर आज भी ध्वसावशिष्ट हैं, उन्हें देखकर यह कल्पना नहीं की जा सकती कि उस समय यहाँ भवन निर्माण कला इतनी विकसित हो चुकी थी। परंतु दूसरी ओर काल का कराल परिपाक
(जैन वास्तु-विद्या
78