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का उपदेश मानने से अनशनादि तप से निर्जरा मानना - ऐसा अनादिकाल का आचरण विशेष दृढ होने से ऐसे आचरण को गृहीत मिथ्याचारित्र बताया है |
प्र० १०७ - आत्मस्वरुप में सम्यक प्रकार से स्थिरता अनुसार शुभाशुभ इच्छाओ का अभाव होता है। वह ही सच्ची निर्जरा है और वह ही सम्यक तप है | इस बात को भूलकर अनशनादि तप से निर्जरा मानने की मान्यता रुप निर्जरातत्व सम्बन्धी जीव को भूल रूप अगृहीत- गृहीत मिथ्या दर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्तिकर क्रम से पूर्ण सुखीपना कैसे प्रगट होवे ? इसका उपाय छहढाला की दूसरी ढाल में क्या बताया है ?
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उ०- " चेतन को है उपयोगरुप, बिनमूरत चिनमूरत अनूप । पुद्गल नम धर्म-अधर्म काल, इनते न्यारी है जीव चाल ॥ (१) मै ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी जीवतत्त्व हैं । (२) मेरा कार्य ज्ञाता दृष्टा है (३) आँख - नाक-कान औदारिक आदि शरीरोरुप मेरी मूर्ति नहीं है । (४) चैतन्य अरूपी असख्यात प्रदेशी मेरा एक आकार है सर्वज्ञस्वभावी ज्ञान पदार्थ होने से मुझ आत्मा ही अनुपम है मुझ निज आत्मा के अलावा विश्व में अनन्त जीव द्रव्य है । अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य है । (८) धर्म-अधर्मं- आकाश एकेक द्रव्य है । ( ९ ) लोक प्रमाण असख्यात काल द्रव्य हैं । इन सब द्रव्यो से मुझ निज आत्मा का किसी भी अपेक्षा किसी भी प्रकार का कर्त्ताभोक्ता का सबन्ध नही है, क्योकि इन सब द्रव्यो का और मुझ निज आत्मा का द्रव्य क्षेत्र - काल-भाव पृथक-पृथक है । ऐसा जानकर ज्ञान-दर्शन उपयोगमयी निज आत्मा का आश्रय ले, तो निर्जरातत्त्व सम्बन्धी जीव की भूल रूप अगृहीत- गृहीत मिथ्यादर्शनादि का अभाव होकर सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति कर क्रम से पूर्ण अतीन्द्रिय सुख को प्राप्ति होवे | यह उपाय छहढाला की दूसरी ढाल मे बताया है ।