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________________ ( ५०४ १) उ०- अनशनादि तप से निर्जरा मानता है । प्र० १०२ - अनशनादि - तुप से निर्जरा मानने रुप मान्यता को छह ढाला की प्रथम ढाल मे क्या बताया है ? F उ०- " मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि । " अर्थात अनशनादि तप से निर्जरा माननेरुप मान्यता को मोहरूपी महामदिरापान बताया है । 1 二 प्र० १०३ - अनशनादि तप से निर्जरा मानने रुप मान्यता को मोह रुपी महामदिरापान क्यो बताया है ? ار : }7 उ०- शुभाशुभ इच्छाओ का उत्पन्नन न होना, तप है। इस तप से निर्जरा होती है। इस बात को भूलकर अनशनादि तप से माननेरूप मान्यता को मोहरूपी महीमदिरापान बताया है । , - प्र० १०४ - अनशनादि तप से निर्जरा मानने रुप मान्यता हा फल छहढाला की प्रथम ढाल में क्या बताया है ? 3 उ०- ऐसी खोटी मान्यता का फल चारो गतियो में घूमकर निगोद जाना बताया है । } प्र० १०५ -अनशादि तप से निर्जरा मानने रूप, मान्यता का फल चारो गतियो मे घूमकर निगोद जाना क्यो बताया है ?, , 71 1 उ०- आत्मस्वरूप में सम्यक प्रकार से स्थिरता अनुसार शुभाशुभ इच्छाओं का अभाव होता है । वह ही सच्ची निर्जरा है और वह ही सम्यक तप है । परन्तु अज्ञानी अनशनादि - तप, से, निर्जरा मानता है, इसलिए अनशनादि तप से निर्जरा माननेरूप मान्यता को चारो गतियों में घूमकर निगोद जाना बताया है । :
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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