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( ४२ ) उ०-(१) सयोग-वियोग व्यवहारनय से ज्ञान का ज्ञेय है और तत्वदृष्टि से पुण्य पाप दोनो अहितकर ही है। (२) परन्तु ऐसा न मानने के कारण पाप के बन्ध को बुरा जानने रुप और पुण्य के बन्ध को भला जाननेरुप खोटी मान्यता का फल चारो गतियो मे घूमकर निगोद जाना बताया है।
प्र०८८-"शुभ-अशुभ बध के फल मझार, रति अरति करें निज पद विसार।" छहढाला की दूसरी ढाल के इस दोहे मे बंधतत्व सम्बन्धी जीव को भूल बताने के पीछे क्या मर्म है ?
उ०-बन्धतत्व सम्बन्धी जीव की भूल का स्पष्ट ज्ञान कराना है। (१) अघाति कर्म के फल के अनुसार पदार्थों की सयोग-वियोगरुप अवस्थाये होती है। ये सब व्यवहारनय से ज्ञान का ज्ञेय है। तत्वदृष्टि से पुण्य-पाप दोनो अहितकर ही है। इस बात को भूलकर बन्धत्व मे जो अभ भावो से नरकादिरुप पाप का बन्ध हो उसे बुरा जानना और शुभभावो से देवादिरुप पुण्य का बन्ध हो उसे भला जानना यह वन्धतत्व सम्बन्धी जीव की भूल है। (२) अघाति कर्म के फल अनुसार पदार्थों की सयोग-वियोगरुप अवस्थाये होती है। वे सब व्यवहारनय से ज्ञान का ज्ञेय है। तत्व दृष्टि से पुण्य-पाप दोनो अहितकर है। इस बात को भूलकर बन्धतत्व मे अशुभभावो से नरकादिरुप पाप का बन्ध हो उसे बुरा जानना-ऐसा अनादिकाल का श्रद्धान अगृहीत मिथ्यादर्शन है। (३) अघाति कर्म के फल अनुसार पदार्थो की सयोग-वियोगरुप अवस्थाऐ होती है वे सव व्यवहारनय से ज्ञान का ज्ञेय है। तत्त्व दृष्टि से पुण्य-पाप दोनो अहितकर ही है। इस बात को भूलकर बन्धतत्त्व मे जो अशुभभावो से नरकादिरूप पाप का बन्ध हो उसे बुरा जानना और शुभभावो देवादिरूप पुण्य का बन्ध हो उसे भला जानना-ऐसा अनादिकाल का जान अगृहीत मिथ्याज्ञान है । (४) अघातिकर्म के फल अनुसार पदार्थो की सयो-वियोगरूप अवस्स्थाये होती है वे सब व्यवहारनय से ज्ञान का जेय है । तत्वदृष्टि से पुण्य-पाप दोनो अहितकर ही है।