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जो कोइ भी दुष्चरित मेरा सर्व त्रय विधि से जूं । अरू त्रिविध सामायिक चरित सब, निर्विकल्प आचरू ॥ १०३ ॥ समता मुझे सब जीव प्रति बैर न किसी के प्रति रहा । मै छोड आशा सर्वत धारण समाधि कर रहा ।। १०४ ॥ जो शूर एव दान्त है, अकपाय उद्यमवान है । भव भीरू है, होता उसे ही सुखद प्रत्याख्यान है ॥ १०५ ॥ यो जीव कर्म विभेद अभ्यासी रहे जो नित्य ही है सयमी जन नियत प्रत्याख्यान-धारण क्षम वही ॥ १०६ ॥ सावध - विरत त्रिगुप्तिमय अरु पिहित इद्रिन्य जो रहे । स्थायी सामायिक है उसे, यो केवली शासन कहे ॥ १२ ॥ स्थावर तथा त्रस सर्व जीव समूह प्रति समता लहे । स्थायि समायिक है उसे, यो केवली शासन कहे ॥ १२६ ॥ सयम नियत-तप मे अहो आत्मा समीप जिसे रहे । स्थायी सामायिक है उसे, यो केवली शासन कहे ॥ १२७ ॥ नहि राग अथवा द्वेष से जो सयमी विकृति लहे । स्थायी सामायिक है उसे, यो केवली शासन कहे ॥ १२८ ॥ रे आर्त-रौद्र दुध्यान का नित ही जिसे वर्जन रहे । स्थायी सामायिक है उसे यो केवली शासन कहे ॥ १२६ ॥ जो पुण्य-पाप विभावभावो का सदा वर्जन स्थायी सामायिक है उसे, यो केवली शासन कहे ।। १३० ॥ जो नित्य वर्जे हास्य अरू रति अरति शोक विरत रहे। स्थायी सामायिक है उसे, य केवली शासन कहे ॥ १३१ ॥ जो नित्य वर्जे भय जुगुप्सा सर्व वेद समूह रे स्थायी नामायिक है उसे, यो केवली शासन कहे ॥ १३२ ॥ जो नित्य उत्तम धर्म - शुक्ल सुध्यान मे ही रत रहे स्थायी सामायिक है उसे, यो केवली शासन कहे ।। १३३ ।
करे ।
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