________________
( 29 ) नर्कवास सम जर्जरित, जानो मलिन शरीर । करि शुद्धातम भावना, 'शीघ्र' लहो भवतीर ॥५१॥ जीव-पुद्गल दोऊ भिन्न है, भिन्न सकल व्यवहार । तज पुद्गल, ग्रह जीव तो, 'शीघ्र' लहे भवपार ॥५५॥ देहादिक को पर गिने, ज्यो शून्य आकाश ॥ लहे 'शीघ्र' पर परब्रह्म को, केवल करे प्रकाश ॥५८॥ मुनिजन या कोई गृही, जो रहे आतम लीन । 'शीघ्र' सिद्धि सुख को लहे, कहते यह प्रभु जिन ॥६५॥ गह-परिवार मम है नही, है सुख दुख की खान । यो ज्ञानी चिन्तन करि, 'शीघ्र' करे भव हान ॥६७।। यदि जीव तू है ऐकला, तो तज सब परभाव । ध्यावो आतम ज्ञानमय, 'शीघ्र' मोक्ष सुख पाव ॥७॥ एकाकी इन्द्रिय रहित, करि योग त्रय शुद्ध । निज आतम को जानकर, शीघ्र' लहो शिवसुख ॥८६॥ रमे जो आत्म स्वरुप मे, तज कर सब व्यवहार । सम्यक्ष्टि जीव वह, 'शीघ्र' होय भवपार ॥८६॥ जो सम्यक्त्व प्रधान बुध, वही त्रिलोक प्रधान । पावे केवलज्ञान 'झट' शाश्वत सौख्य निधान ॥१०॥ शम सुख मे लवलीन जो, करते निज अभ्यास । करके निश्चय कर्म क्षय; लहे 'शीघ्र' शिववास ॥१३॥ आत्मा ही अरहन्त है, निश्चय से सिद्ध जान । आचरज, उवझाय अरु, निश्चय साधु समान ॥१०४॥