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( २७१ ) तब स्वामी बोले ज्यो अधा होता है उसकू नही दीखता है में फेर स्वामीसै प्रश्न नहीं कियो चुपचाप रह्यो परन्तु जैसे स्वान के मस्तगमैं कीट पड जावै तैसे मै का मस्तगमै भ्राति सी पड गई उस भ्राति चुकत मै ज्येष्ठ महीनोमे समेद सिखर गयो तहा बी पहाड के उपर नीचे बनमै उस प्रसिद्ध सिद्ध परमात्माक् देखणे लग्यो तीन दिवस पर्यत देख्यो परन्तु वहाँ बी वो प्रसिद्ध सिद्ध दीख्यो नही बहुरि पीछो पलट करिक १० (दस) महीना पश्चात् देवेद्रकीर्ति स्वामी के समीप आयो, स्वामी से विनीती करी हे प्रभु वो प्रसिद्ध सिद्ध परमात्मा प्रगट है तो मै कू दीखतो नही आप कृपा करिके दीखावो तब स्वामी बोले सर्वक देखता है ताल देख तू ही है ऐसे स्वामी मैका कर्ण मे कही तत् समय मेरी मेरे भीतर अपरात्म अतरद्रष्टी हो गई सो ही मै इस ग्रय मे प्रगटपणे कही है जैसे जैसो पीव पाणी तैसे तसो बोले वाणी इसी दृष्टान्त द्वारा निश्चय समजणा, मेरा अत करणमै साक्षात् परमात्मा जागती ज्योति अचल तिष्ठ गई उसी प्रमाणकी मै वाणी इस पुस्तकमै लिखी है अब कोई मुमुक्षक जन्म मरण के दुपसै छूटणे की इच्छा होय तथा जागती ज्योति परब्रह्म परमात्माको साक्षात् स्वानुभव लेना होय सो मुमुक्ष विपय मोटा पाप अपराध सप्त विषयन छोडकरिके इस पुस्तकके येकात में वैठकरि कै मनको मनमै मनन करो वाचो पढो "परमात्मा प्रकासादिक" ग्रन्थसैभी इसमें स्वानुभव होणेकी सुगमता है खोटी करणी खोटा कर्म तो छोडणाजोग ही है परन्तु इस ग्रन्थकू पटणेवाला मुमुक्षक कहता हू के जैसे तुम खोट करणी खोटा कर्म छोट दिया तैसे सुभ भला कर्म भली करणी भी छोडकरिकै इस पुस्तकक वाचणा येकातमै येह पुस्तक अपणो आपही के सवोधन को है परकू सवोधनको मुख्य नही कदाचित् कोई प्रकार है समज लेणा समजाणा विना समजसै नही बोलणा, नही कहणा, जरूर इस ग्रन्थके पढणेसै मनन करेणसै मुमुक्षुक स्वानुभव अतरदृष्टिी होवैगी ससार जगतमै जिसकू स्वात्मानुभव आत्मज्ञान नही वा ब्रह्मज्ञान नही उसका व्रत