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________________ ( २६९ ) श्री क्षु धर्मदास विरचित स्व जीवन वृत्तान्त ( ' स्वात्मानुभव मनन' की 'प्रस्तावना' ) 'मैका सरीरक क्षुल्लक ब्रह्मचारी धर्मदास कहणेवाला कहता है सो ही मै मेरी स्वात्मानुभव की प्राप्ति की प्राप्ती भई सो प्रगट कर्ता हूँ मैं के द्वारा मेरा सरीर का जनम तो सवाई जयपूरका राजमै जीला सवाई माधोपूर तालुका बोलीगाव वपूई का है खडेरवाल श्रावग गोत्र गिरधरवाल चुडीवाला तथा गधिया का कूल में मेरी सरीर उपज्यो है मेरा सरीर का पिता का नाम श्रीलालजी थो अर मेरी माता का नाम ज्वानावाई थो अर मेरा सरीर को नाम धनालाल थो अब मेरा सरीरको नाम क्षुल्लक ब्रह्मचारी धर्मदास है अनुक्रमसे मेरे सरीर के वय २० वर्ष की हुई तब कारण पायकरिके मै झलरा पाटण आयो तहाँ जैनका मुनी नगन श्री सिद्धश्रेणिजी ताको में शिष्य हवो स्वामी मैक लौकीक वर्त नेम दीया सो ही मैं सवत् १६२२ औगणीसे वाईसका सवत्सं १९३५ का साल पर्यंत कायक्लेस तप किया । भावार्थ १३ (तेरा) वर्ष के भीतर मे २००० दोहे सहस्र तो निर्जल उपवास किया, दो च्यार जैन मंदिर वणाया, प्रतिष्ठा कराई बहुरि समेदशिखर गिरनार आदि जैनका तीर्थ कीया, और बी भूसयन पटन पाठ मत्रादिक बहुत कीया, ताकरि के मेरा अन करण मै अभिमान अहकाररुपी सर्प का जहर व्याप्त हो गया था तिस कारण मैं मेरे क्कू भला मानतो यो अन्यक्क झठा, पोटा (खोटा ), बुरा मानतो थो उसी बहिरात्मादिसा मैं मै तेरापथी श्रावग दिल्ली अलीगढ कोयल आदि बडे सहो मे मेरा पाव मै प्रणम्य नमस्कार पूजा करते थे इस कारणसै वी मेरा अतःकरणमें अभिमान अज्ञान ऐसा था के मैं भला हूँ श्रेष्ठ हूँ अर्थात् उस समय यह मोक निश्चय नही थी के निदा स्तुति पूजा देहकी अर नामकी है बहुरि मैं भ्रमण करतो बराड देसेमे
SR No.010123
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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