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( २६६ ) प्र० १८-जैन धर्म क्या है ?
उत्तर--निजात्मा का अनुभव ज्ञान आचरण ही जैन धर्म है। (१) जैन होते ही सारे विश्व का यथार्थ ज्ञान हो जाता है । (२) सिद्धअरहन्त-श्रेणी-मुनिपना-श्रावकपना क्या है ?-हथेली पर रखे ऑवले के समान यथार्थ श्रद्धान-ज्ञान-आचरण हो जाता है। जैमा वस्तु स्वरूप है वैसा श्रद्धान-ज्ञान हो जावे तो सम्पूर्ण दु ख का अभाव हो
जावे।
प्र०,१६-विश्व में सुखी कौन है ? उत्तर-जानी ही मुखी है। प्र० २०--ज्ञाता-दृष्टा कब कहा जावेगा?
उत्तर-जैसा केवली के ज्ञान में आया है वैसा ही हो चुका है, हो रहा है और होता रहेगा-ऐसा जाने माने तभी मेरा कार्य ज्ञातादृष्टा हे और मै ज्ञान दर्शन उपयोगमयी जीव तत्व हूँ।
प्र० २१-जो विश्व में दिखता है पुद्गल स्कन्धो की पर्याय है फिर जीव इनमें पागल क्यो हो रहा है ?
उत्तर-पागल है इसलिये पागल हो रहा है । दिगम्बर धर्म होने पर भी इनमे लगे, अपनापना माने-जीवन को विक्कार है ।
प्र० २२-वस्तु स्वरूप कैसा है ?
उत्तर-अनादिनिधन वस्तुये भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा लिये परिणमे है। कोई किसी का परिणमाया परिणमता नही है । यह सब शास्त्रो का सार है। इसको ध्यान मे लेते ही ससार का अभाव होकर मोक्ष का पथिक बने।
प्र० २३-सुनने पर भी धर्म की प्राप्ति क्यो नही होती ? उत्तर-ज्यो रमता मन विपयो मे, त्यो जो आतमलीन ।
मिले शीघ्र निर्वाण पद, धरे न देह नवीन ।। व्यवहारिक धन्धे फसा, करे न आतमज्ञान । इस कारण जग जीव ये, पात नही निर्वाण ॥
का पथिक की प्राप्ति को
आतम