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( १७७ ) (३) अजीवतत्त्व की तरफ दृष्टि से जो आश्रव-बव-पुण्य-पाप उत्पन्न होते है वे सब छोडने योग्य हेय है (४) शुद्ध-बुद्धएक स्वभाव जिसका है वैसा निज परमात्मा द्रव्य के आश्रय से उत्पन्न एकदेश वीतरागता प्रगट करने योग्य एक देश उपादेय । (५) पूर्ण क्षायिक दशा पूर्ण प्रगट करने योग्य उपादेय है।
प्र० ८८-जीव-अजीव को क्यो जानना चाहिये ? इस विषय मे मोक्षमार्ग प्रकाशक में क्या बताया। ___उत्तर-(१) प्रथम तो दुख करने मे अपना और पर का ज्ञान अवश्य होना चाहिये । (२) यदि अपना और पर का ज्ञान नहीं हो तो अपने को पहचाने बिना अपना दुख' कैसे दूर करे ? (३) अपने को और पर को एक जानकर अपना दुःख दूर करने के अर्थ पर का उपचार करे तो अपना दु ख कैसे दूर हो ? (४) आप स्वय जीव है और पर अजीव भिन्न है, परन्तु यह पर मे अहकार-ममकार करे तो उसे दुख ही होता है, अपना और पर का ज्ञान होने पर ही दुख दूर होता है (५) अपना और पर का ज्ञान जीव-अजीव का ज्ञान होने पर ही होता है, क्योकि आप स्वय जीव तत्त्व है. शरीरादिक अजीव तत्त्व है। यदि लक्षणादि द्वारा जीब अजीव की पहचान हो तो अपनी और पर की भिन्नता भाषित हो, इसलिये जीव-अजीव को जानना चाहि। (मो० पृ० ७८)
प्र० ८९-जीव अनादि से दुखी क्यो है ?
उत्तर-(१) जीव को अनादि स्व-पर की एक्त्व रुप श्रद्धा से मिथ्यादर्शन है। (२) स्व-पर के एकत्व ज्ञान से मिथ्याजान है। (३) स्व-पर के एकत्व आचरण से मिथ्याचारित्र है । अतं अनादि से जीव स्व-पर के एकत्वादि के कारण ही हुँ खी है।
१० ६०-नयज्ञान और भेद ज्ञान की आवश्यकता क्यो है ?
उत्तर-समस्त दु खो का मूल कारण मिथ्या दर्शन-ज्ञान चारित्र' ही है। इन सभी दु खो का अभाव करने के लिये वय ज्ञान और भेद