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( १७५ ) जीव होते नही । ऐसा ही श्रद्वान करना। इस प्रकार व्यवहारनय (शरीरादिक वाला जीव है) अगीकार करने योग्य नहीं है।
प्र० ८२-व्यवहार बिना (भेद बिना) निश्चय का (अभेद आत्मा का) उपदेश कैसे नही होता? इसके दूसरे प्रकार को समझाइये।
उत्तर-निश्चय से आत्मा अभेद वस्तु है। उसे जो नही पहचानते, उनसे इसी प्रकार कहते रहे-तो वे समझ नही पाये । तब उनको अभेद वस्तु मे भेद उत्पन्न करके ज्ञान-दर्शनादि गुण-पर्यायरुप जीव के विशेष किये तब 'जानने वाला जीव है, देखने वाला जीव है। इत्यादि प्रकार सहित जीव की पहचान हुई। इस प्रकार भेद बिना अभेद के उपदेश का न होना जानना।।
प्र० ८३-प्रश्न ८२ मे व्यवहार से ज्ञानदर्शन भेद'द्वारा जीव की पहचान कराई । तब ऐसे भेदरुप व्यवहारनय को कैसे अंगीकार नही करना चाहिये ? सो समझाइये।
उत्तर-अभेद आत्मा मे जान-दर्शनादि भेद किये-सो उन्हे भेदरुप ही नहीं मान लेना, क्योकि भेद तो समझाने के अर्थ किये है। निश्चय से आत्मा अभेद ही है-उस ही को जीव वस्तु मानना । सज्ञा-सख्या-लक्षण आदि से भेद कहे-सो कथन मात्र ही है । परमार्थ से द्रव्य-गुण भिन्न-भिन्न नहीं है, ऐसा ही श्रद्वान करना । इस प्रकार भेदरुप व्यवहारनय अगीकार करने योग्य नहीं है।।
प्र० ८४-व्यवहार बिना निश्चय का उपदेश कैसे नही होता? तीसरे प्रकार को समझाइये।
उत्तर-निश्चय से वीतराग भाव मोक्ष मार्ग है, उसे जो नही पहचानते, उनको ऐसे ही कहते रहे-तो वे समझ नहीं पाये । तब उनको (१) तत्त्व श्रद्धान-ज्ञान पूर्वक (२) पर द्रव्य के निमित्त मिटने की सापेक्षता द्वारा (३) व्यवहार नय से व्रत-शील-सयमादि को वीतराग भाव के विशेष बतलाये । तब उन्हे वीतराग भाव की पहचान हुई । इस प्रकार व्यवहार विना निश्चय मोक्ष मार्ग के उपदेश का न होना जानना।