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( १७३) प्र० ७६-व्यवहारनय का श्रद्धान छोडकर निश्चयनय का श्रद्धान करना क्यो योग्य है ?
उत्तर-(१) व्यवहारनय [अ] स्वद्रव्य-परद्रव्य को, [आ] स्वद्रव्य के भावो को-परद्रव्य के भावो को, [इ] तथा कारण-कार्यादि को, किसी को किसी में मिलाकर निरुपण करता है । सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिये उसका त्याग करना चाहिये । (२) और निश्चयनय उन्ही को यथावत निरुपण करता है तथा किसी को किसी मे नही मिलता है। ऐसे ही श्रद्वान से सम्यक्त्व होता है इसलिये उसका श्रद्वान करना चाहिये ।
प्र० ७७-आप कहते हो कि व्यवहारनय के श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है इसलिये उसका त्याग करना और निश्चयनय के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है इसलिए उसका श्रद्धान करना । परन्तु जिन मार्ग मे दोनो नयो का ग्रहण करना कहा है। उसका कारण क्या है ? ___ उत्तर-(१) जिनमार्ग मे कही तो निश्चयनय की मुख्यता के लिये व्याख्यान है, उसे तो "सत्यार्थ ऐसे ही है"-ऐसा जनना। (२) तथा कही व्यवहारनय की मुख्यता के लिये व्याख्यान है, उसे "ऐसे है-नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है"-ऐसा जानना। इस प्रकार जानने का नाम ही दोनो नयो का ग्रहण है।
प्र० ७८-कुछ मनीषी ऐसा कहते है कि "ऐसे भी है और ऐसे भी है" इस प्रकार दोनो नयो का ग्रहण करना चाहिये । क्या उन महानुभावो का ऐसा कहना गलत है ? ।
उत्तर-हाँ, बिल्कुल गलत है, क्योकि उन्हे जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पता नही है तथा दोनो नयो को समान सत्यार्थ जानकर "ऐसे भी है और ऐसे भी है" इस प्रकार भ्रमरुप प्रवर्तन से तो दोनो नयो का ग्रहण करना नही कहा है ।
प्र० ७६-व्यवहारनय असत्यार्थ है, तो उसका उपदेश जिन मार्ग