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का विकार नही है | बिल्कुल वह स्वच्छ निर्मल है । यदि कोई आकाश को तलवार से तोडना, काटना चाहे या अग्नि से जलाना चाहे या पानी से गलाना चाहे तो वह आकाश कैसे तोडा, काटा जावे या जले या गले ? उसका बिल्कुल नाश नहीं हो सकता । यदि कोई आकाश को पकड़ना या तोडना चाहे तो वह पकडा या तोडा नही जा सकता । वैसे ही मै आकाश की तरह अमूर्तिक, निर्विकार, पूर्ण निर्मलता का पिण्ड हूँ | मेरा नाग किस प्रकार हो ? किसी भी प्रकार नही हो, यह नियम है । यदि आकाश का नाश हो तो मेरा भी हो, ऐसा जानना । किन्तु आकाश के और मेरे स्वभाव मे इतना विशेष अन्तर है कि आकाश तो जड अमूर्तिक पदार्थ हे और मै चैतन्य अमूर्तिक पदार्थ हूँ मै चैतन्य हूँ इसीलिये ऐसा विचार करता हूँ कि आकाश जड है और मैं चैतन्य | मेरे द्वारा जानना प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है और आकाश नही जानता है ।
प्र० २३ - और मै कैसा हूं ?
उत्तर- मै दर्पण की तरह स्वच्छ शक्ति का ही पिड हैं । दर्पण की स्वच्छ शक्ति मे घटपटादि पदार्थ स्वयमेव ही झलकते है | दर्पण मे स्वच्छ शक्ति व्याप्त रहती है वैसे ही मै स्वच्छ शक्तिमय है । मेरी स्वच्छ शक्ति मे ( कर्म रहित अवस्था मे ) समस्त ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव ही झलकते है ऐसी स्वच्छ शक्ति मेरे स्वभाव मे विद्यमान है । । मेरे सर्वाग मे एक स्वच्छता भरी हुई है मानो ये ज्ञेय पदार्थ भिन्न है । यह स्वच्छता शक्ति का स्वभाव ही है कि उसमे अन्य पदार्थों का दर्शन होता है ।
प्र० २४ - और मै कैसा हूं ?
उत्तर- मै अत्यन्त अतिशय निर्मल, साक्षात् प्रकट ज्ञान का पुन्ज बना हुआ हूँ और अनन्त शान्तिरस से परिपूर्ण और एक अभेद निराकुलता से व्याप्त हैं ।
प्र० २५ - और मेरा चैतन्यस्वरूप कैसा है ?
उत्तर- वह अपनी अनन्त महिमा से युक्त है, वह किसी की