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( १४१ )
प्र० ८-काल को जीतने की इच्छा वाला सम्यग्दृष्टि क्या विचारता है ?
उत्तर - हे कुटुम्ब परिवार वालो! सुनो। देखो। इस पुद्गल पर्याय का चरित्र | यह देखते देखते उत्पन्न होती है और देखते ही नष्ट हो जाती है सो मैं तो पहले ही विनाशीक स्वभाव जानता था । अब इसके नाश का समय आ गया है । इस शरीर की आयु तुच्छ रह गई है और उसमे भी प्रति समय क्षण-क्षण कम हुआ जाता है किन्तु मैं ज्ञाता-दृष्टा हुआ इसके ( शरीरका ) नाश को देख रहा हूँ । मैं इसका पडौसी हूँ न कि कर्त्ता या स्वामी । मैं देखता हूँ कि इस शरीर की आयु कैसे पूर्ण होती है और कैसे इसका ( शरीरका ) नाश होता है यही मे तमाशगीर की तरह देख रहा हूँ । अनन्त पुद्गल परमाणु इकट्ठे होकर शरीर की पर्याय रुप परिणमते है, शरीर कोई भिन्न पदार्थ नही है और मेरा स्वरुप भी नही है । मेरा स्वरुप तो एक चेतन - स्वभाव शाश्वत अविनाशी है उसकी महिमा अद्भुत है सो में किससे कहूँ ?
प्र०
- पुद्गल पर्याय का महात्म्य क्या है ? उत्तर- देखो | इस पुद्गल पर्याय का महात्म्य 1 अनन्त परमागुओ का परिणमन इतने दिन एक-सा रहा, यह वडा आश्चर्य है। अब वे ही पुद्गल के विभिन्न परमाणु अन्य अन्य रुप परिणमन करने लगे है तो इसमे आश्चर्य क्या । लाखो मनुष्य इकट्ठे होकर मिलने से 'मेला' होता है । यह मेला पर्याय शाश्वत रहने लगे तो आश्चर्य समझना चाहिए। इतनेदिन तक लाखो मनुष्यो का परिणमन एक-सा रहा, ऐसा विचार करने वाला मनुष्य आश्चर्य मानता है । तत्पश्चात वे लाखो मनुष्य भिन्न भिन्न दशो दिशाओ मे चले जाते है तब 'मेला' नाश हो जाता है । यह तो इन पुरुषो का अपना-अपना परिणमन ही है जोकि इनका स्वभाव है इसमे आश्चर्य क्या ? इसी प्रकार शरीर का परिणमन नाश रुप होता है यह स्थिर कैसे रहेगा ?
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प्र० ११ - शरीर पर्याय को रखने में कोई समर्थ न होने का क्या कारण है ?