________________
( २ )
(झ) स्वाभाविक अनन्त ज्ञान आदि अनन्त गुण का आधारभूत निज परमात्मद्रव्य उपादेय है तथा इन्द्रिय सुख आदि ( द्रव्य कर्म, नोकर्म, भावकर्म) परद्रव्य त्याज्य है इस तरह सर्वज्ञदेव प्रणीत निश्चय व्यवहारनय को साध्य -साधक भाव से जानता है । यह अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानवर्ती का लक्षण है ।
·
[ वृहत द्रव्य संग्रह गा० १३ की टीका पृष्ठ ४० ] (ञ) 'जीवादि सद्दहण सम्मत्त' वीतराग सर्वज्ञ देव द्वारा कहे हुए शुद्ध जीव आदि तत्वो मे चल, मलिन, अगाढ दोप रहित श्रद्धान, रुचि अथवा 'जो जिनेन्द्र ने कहा वही है जिस प्रकार से जिनेन्द्र ने कहा है उसी प्रकार है ।' ऐसी निश्चयरूप बुद्धि ( निर्णयरूप ज्ञान ) सम्यग्दर्शन आत्मा का परिणाम है । [ वृहत द्रव्यसंग्रह गा० ४१ टीका पृष्ठ १८८ ]
(ट) मिथ्यात्व आदि सात प्रकृतियों के उपशमादि होने पर, (२) अथवा अध्यात्म भाषा के अनुसार निजशुद्ध आत्मा के सम्मुख परिणाम होने पर शुद्ध आत्मभावना से उत्पन्न यथार्थ सुखरूपी अमृत को उपादेय करके, ससार शरीर और भोगो मे जो हेय वुद्धि है, वह सम्यग्दर्शन से शुद्ध है वह चतुर्थ गुणस्थान वाला व्रतरहित दार्शनिक है । [ वृहत द्रव्यसंग्रह गाथा ४५ टीका पृष्ठ २२० ] (ठ) व्यवहारनय अभूतार्थ है और शुद्धनय भूतार्थ है ऐसा ऋपिश्वरो ने बताया है जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह जीव निश्चय से सम्यग्दृष्टि है । [ समयसार गाथा ११]
२०. जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति क्यो नहीं होती ?
उसका कारण
(अ) जीव का द्रव्यकर्म नोकर्म से तो किसी प्रकार का सम्बन्ध नही है । परन्तु अनादि से अज्ञानी जीव एक-एक समय करके कर्मकृत शुभाशुभ भावो की, जो अपने साथ एकमेक नही है, पृथक है;