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________________ ( ८५ ) जुदा-जुदा अनन्त गुण और पर्याय सहित अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में विराजमान है)। (मोक्षमार्गप्रकाशक परमार्थ वचनिका पृष्ठ १०) १७ जीव का सदैव कर्तव्य (अ) जोवाजोवादीना तत्वार्थाना सदैव कर्तव्यम् । श्रद्धान विपरीताभिनिवेश विविक्तमात्मरूप तत् ॥२२॥ __जीव अजीवादि तत्वार्थों का विपरीत अभिनिवेश रहित अर्थात् अन्य को रुप समझने अन्यरूप जो मिथ्याज्ञान है उससे रहित श्रद्धान निरन्तर ही करना कर्तव्य है, क्योकि वह श्रद्धान ही आत्मा का स्वरूप है। (पुरुपार्थसिद्धयुपाय गाथा २२) (आ) विपरीताभिनिवेश से रहित जीव-अजोवादि तत्वार्थों का श्रद्धान सदाकाल करना योग्य है। यह श्रद्धान आत्मा का स्वरूप है। दर्शनमाह उपाधि दूर होने पर प्रगट होता है, इसलिए आत्मा का स्वभाव है । चतुर्थादि गुण स्थान मे प्रगट होता है पश्चात् सिद्ध अवस्था मे भी सदाकाल इसका सद्भाव रहता है ऐसा जानना । (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३२० से ३२१) १८. सर्व उपदेश का तात्पर्य (अ) ससार अवस्था मे पण्य के उदय से इन्द्र अहमिन्द्रादि पद प्राप्त करे, तो भो निराकुलता नहीं होती, दुःखी ही रहता है, इसलिए ससार अवस्था हितकारी नहीं है। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३१०) (आ) मोक्ष अवस्था मे किसी भी प्रकार की आकुलता नहीं रही, इसलिए आकुलता मिटाने का उपाय करने का भी प्रयोजन नही है। सदाकाल शान्तरस से सुखी रहते हैं, इसलिए मोक्ष अवस्था ही हितकारी है। पहले भी ससार अवस्था के दु ख का और मोक्ष अवस्था के सुख का विशेष वर्णन किया है, वह इसी प्रयोजन के अर्थ किया है।
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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