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________________ ( ७६ ) अनिष्ट मान कर राग-द्वेप करता है इसलिए इस परिणमन को मिथ्यात्व कहा है। [मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ६०] (ग) इसलिए मुख-दुख का मूल बलवान कारण (निमित्त) मोह का उदय है। अन्य वस्तुये है वह बलवान (निमित्त) कारण नहीं है (निमित्त की अपेक्षा कथन है)। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ४२) १३. पुद्गलादि पर पदार्यों का कर्ता-हर्ता आत्मा नहीं (अ) जा कर्म के उपशमादिक हैं यह पुद्गल की शक्ति है उसका आत्मा कर्ता-हर्ता नही है। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३११) (आ) तत्व निर्णय न करने मे किसी कर्म का दोष है नही, तेरा ही दोष है, परन्तु तू स्वय तो महन्त रहना चाहता है अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नही (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३१२) (इ) इसका तो कर्तव्य तत्व निर्णय का अभ्यास ही है, इसी से दर्शन मोह का उपशम तो स्वयमेव होता है उसमे जीव का कर्तव्य कुछ नहीं है। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३१४) (ई) यहाँ कर्म के उपशमादिक से उपशमादि सम्यक्त्व कहे, सो कर्म के उपशमादिक इसके करने से नही होते। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३४०) (उ) जसे-कोई अपने हाथ से पत्थर लेकर अपना सिर फोड ले तो पत्थर का क्या दाष ? उसी प्रकार जोव अपने रागादिक भावो से पुदगल को कर्मरूप परिण मित करके अपना तुरा करे, तो कर्म का क्या दोष ? (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ६०) (अ) आप कर्मों के उपशमादि करना चाहे तो कैसे हो ? आप तो तत्वादिक का निश्चय करने का उद्यम करे, उससे स्वयमेव ही उपशमादि सम्यक्त्व होते हैं। (मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २७७)
SR No.010121
Book TitleJain Siddhant Pravesh Ratnamala 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDigambar Jain Mumukshu Mandal Dehradun
PublisherDigambar Jain Mumukshu Mandal
Publication Year
Total Pages317
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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