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( ३२ ) भी अव भाषा द्वारा जीवो को समझाते है । यहाँ भाषा द्वारा ही अर्थ लिखने मे आया हो कुछ दोप नहीं है । इस प्रकार विचार कर श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीय नाम पच सग्रह ग्रन्थ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नामक टीका के अनुहार 'सम्यग्ज्ञान चद्रिका' नामक यह देशभाषामयी टीका करने का निश्चय किया है। श्री अरहन्त देव वा जिनवाणी वा निर्ग्रन्थ गुरुओ के प्रसाद से वा मूलग्रन्थकर्ता श्री नेमिचद आदि आचार्य के प्रसाद से यह कार्य सिद्ध हो। ___ अब इस शास्त्र के अभ्यास से जीवो को सन्मुख किया जाता है । हे भव्य जीव, तुम अपने हित की वाँच्छा करते हो तो तुमको जिस'प्रकार हित बने वैसे ही इस शास्त्र का अभ्यास करना। कारण कि आत्मा का हित मोक्ष है, मोक्ष के विना अन्य जो है वह पर सयोग जनित है, विनाशीक है, दु खमय है, और मोक्ष है वही निज स्वभाव है अविनाशी है, अनन्त सुखमय है। इसलिये मोक्षपद की प्राप्ति का उपाय तुमको करना चाहिये । मोक्ष का उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकाचारित्र है। इनकी प्राप्ति जीवादिक के स्वरूप जानने से ही होती है । उसे कहता हूँ। - जीवादि तत्वां का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है उसे विना जाने श्रद्धान का होना आकाश के फूल समान है। प्रथम जाने तब फिर वैसे ही प्रतीति करने स श्रद्धान को प्राप्त होता है। इसलिये जीवादिकका जानना, श्रद्धान होने से पूर्व ही होता है, वही उनके-श्रद्धानरूप सम्यरदर्शन का कारणरूप जानना। श्रद्धान होने पर जो जीवादिक का जानना होता है उसी का नाम सम्यग्ज्ञान है। तथा श्रद्धानपूर्वक जीवादि को जानते ही स्वयमेव उदासीन होकर हेयका त्याग, उपादेय का ग्रहण करता है तब सम्यकचारित्र होता है। अज्ञानपूर्वक क्रियाकाड से सम्यक चारित्र नहीं होता। इस प्रकार जीवादिक को जानने से ही सम्यग्दर्शनादि मोक्ष के उपायो की प्राप्ति निश्चय करनी ही चाहिये । इस शास्त्र के अभ्यास से जीविकादि का जानना यथार्थ होता है। जो ससार है वही जीव और कर्म का सम्बन्ध रूप है। तथा