________________ ( 266 ) समय-समय पर विशेप मे शुद्धता होती है, और यदि उस विशेष पर्याय मे ऐसी विपरीत रुचि करे कि 'जो रागादि व देहादि है वह मैं हू' तो विशेष मे अशुद्धता होती है। जिसे स्वरूप की रुचि है उसे शुद्ध पर्याय कमबद्ध प्रगट होती है; और जिसे विकार की-पर की रुचि है उसे अशुद्ध पर्याय क्रमबद्ध प्रगट होती है। चैतन्य को क्रमवद्ध-पर्याय में अन्तर नही पड़ता, किन्तु क्रमबद्ध का ऐसा नियम है कि जिस ओर की रुचि करता है उस ओर की क्रमबद्ध दशा होती है / जिसे ज्ञानस्वभाव की श्रद्धा व रुचि होती है उसकी पर्याय शुद्ध होती है, सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान के अनुसार क्रमबद्ध पर्याय होती है। उसमे कोई अन्तर नही पड़ता-इतना निश्चय करने मे तो ज्ञान स्वभावी द्रव्य की ओर का अनन्त पुरुषार्थ आ जाता है। यहाँ पर्याय का क्रम नही बदलना है किन्तु अपनी ओर रुचि करनी है / रुचि के अनुसार पर्याय होती है। द्रव्य दृष्टि का अभ्यास कर्तव्य है में काय की दृष्टि होता होता है उसे स्वरूप जानना का कुछ "प्रत्येक द्रव्य पृथक-पृथक् है, एक द्रव्य का दूसरे के साथ वास्तव मे कोई सम्बन्ध नही है," इस प्रकार जो यथार्थतया जानता है उसको स्वद्रव्य की दृष्टि होती है, और द्रव्यदृष्टि के होने पर सम्यकदर्शन होता है, जिसके सम्यकदर्शन होता है उसे मोक्ष हुए बिना नहीं रहता, इस लिये मोक्षार्थी को सर्वप्रथम वस्तु का स्वरूप जानना आवश्यक है। प्रत्येक द्रव्य पृथक्-पृथक् है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी नही कर सकता, ऐसा मानने पर वस्तु स्वभाव का इस प्रकार ज्ञान हो जाता है कि-आत्मा सर्व परद्रव्यो से भिन्न है, तथा प्रत्येक पुद्गल परमाणु भिन्न है, दो परमाणु मिलकर एकरूप होकर कभी कार्य नहीं करते किन्तु प्रत्येक परमाणु भिन्न ही है।