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जिनेन्द्र कथित विश्व व्यवस्था “जीव अनन्त, पुद्गल अनन्तानन्त,
धर्म-अधर्म - आकाश
एक-एक और
काल लोक प्रमाण असंख्यात हैं । प्रत्येक द्रव्य में अनन्त - अनन्त गुण हैं । प्रत्येक गुण में एक ही समय में एक पर्याय का उत्पाद, एक पर्याय का व्यय और गुण धौव्य रहता है । इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य के गुण में हो चुका है, हो रहा है
और होता
रहेगा ।"
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[जैनदर्शन का सार ]
स्व - (१) अमूर्तिक प्रदेश का पुज ( २ ) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणों का धारी (३) अनादिनिधन ( ४ ) वस्तु आप है ।
पर - (१) मूर्तिक पुद्गल द्रव्यो का पिण्ड (२) प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणो से रहित (३) नवीन जिसका ऐसे शरीरादि पुद्गल पर हैं ।
सयोग हुआ है (४) [मोक्षमार्गप्रकाशक]