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जावे तो राक्षम नुकसान नही पहुँचा सकेगे । तब देवो ने समुद्र को मथना शुरू किया तो उसमे से कीमती रत्न निकले, तो उन्होने उसकी परवाह नही की, क्योकि उनको तो अमृत की आवश्यकता थी । फिर मथते मथते हलाहल जहर निकला, तब भी घवडाये नही, क्योकि उनको तो अमृत चाहिए था । फिर वाद मे मघते - मथते अमृत को प्राप्ति हुई, तब राक्षसो से देवो की रक्षा हुई, ( यह लौकिक दृष्टान्त है), उसी प्रकार यह जीव अनादि से एक-एक समय करके दुखी हो रहा है । तव वह दुखी जीव भगवान के शमोगरण मे गया तो भगवान की दिव्यध्वनि मे आया, यदि यह जीव दुखो से बचना चाहता है तो अपना जो त्रिकाली ज्ञायक स्वभाव समुद्र है उसका आश्रय ले, तो यह दुखो से मुक्त हो सकेगा । तब पात्र जीव स्वभाव का आश्रय लेने का प्रयत्न करता है तो बीच मे शुभभाव आता है तो पात्र जीव उसकी ओर दष्टि नही करता, क्योकि उसे तो सम्यग्दर्शनादि की आवश्यकता है । कोशिश करते-करते कभी अशुभ भाव का उदय भी आ जाता है तव भी पात्र जीव घबराते नही क्योकि उनको तो रत्नत्रय की आवश्यकता है । फिर विशेष पुरुपाथ किया तो सम्यग्दर्शनादि की प्राप्ति हुई, तब मोह राग द्वेषरूप राक्षसो से बचा - ऐसे धीर पुरुष सम्यग्दृष्टि आदि हैं ।
प्रश्न १२१ - दिगम्बर नाम घराने पर भी क्या बौद्ध, सांख्य, चार्वाक, श्वेताम्बर हो सकता है ?
उत्तर- (१) दिगम्बर जैन कहलाने पर भी, लडका मरने से वह मर गया । ससार के पदार्थों मे इष्ट-अनिष्ट परिवर्तन होने पर अपने मे इष्ट-अनिष्टपना मानना, वह स्वयं क्षणिक वादी बौद्ध है । (२) सांख्य मतावलम्बी - दिगम्बर जैन नाम धराके, आत्मा तो सर्वथा त्रिकाल शुद्ध ही है, कर्म ही राग-द्वेष कराता है, कर्म ही ससार- मोक्ष कराता है ऐसी मान्यता वाला स्वयं साख्य मतावलम्बी है । (३) चार्वाक - दिगम्बर जैन नाम धराके अरे भाई । शरीर की सम्हाल