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( २७२ ) कोई जरा धीरे से हाथ फेरे, तो तुरन्त जाग जाता है, उसी प्रकार पात्र जीव को ज्ञानी कहते है। तेरा कार्य तो मात्र ज्ञाता-दृष्टा है पर से, विकार से तेरा सम्बन्ध नही है। इतना कहते ही ज्ञानी हो जाता है और जैसे-जिसने अपने ऊपर मोटे-मोटे तीन गद्दे गेर रक्खे हों उस पर कोई लाठियाँ भी बरसावे, तो वह जागता नही है, उसी प्रकार अनादि के अप्रतिबुद्ध को ज्ञानी बारम्बार समझाते है परन्तु वह समझता नही है इसलिए ज्ञानियो ने 'हरामजादीपना' आदि शब्दो द्वारा उसके भले के लिए ही सम्बोधन किया है। वह उनका वडा उपकार है।
प्रश्न ११३-जव जीव विकार करता है, तब उसी के अनुसार कर्म का बंध होता है यह बात तो ठीक है। परन्तु दूसरा पक्ष कहता है कि कार्माणवर्गणा मे से जब कर्म बध होने की योग्यता होती है, तव जीव को विकार फरना ही पड़ेगा, यह आप क्यो नहीं कहते ?
उत्तर-(१) उस समय होगा कोई जगत मे ऐसा अज्ञानी जो विकार करता होगा। तुझे विकार करना पडेगा, यह बात कहाँ से आई । (२) यह जीव स्वय अपने अपराध से विकार करता है ऐसा जाने तो स्वभाव के आश्रय से विकार को दूर भी कर सकता है (३) यदि कर्म का उदय विकार कराये तो कभी मोह-राग-द्वप का अभाव . नही होगा क्योकि कर्म का उदय तो समय-समय होता है (४) जयसेनाचार्य प्रवचनसार गा० ४५ मे कहा है कि 'द्रव्यमोह का उदय होने पर भी जीव शुद्धात्म भावना के बल द्वारा विकार न करे तो बध नही होता, परन्तु निर्जरा होती है। (५) यदि द्रव्यकर्म विकार कराये तो जीव जहाँ पडा है, वही पड़ा रहेगा, कभी निगोद मे भी न निकल सकेगा। (६) जैसे अपने घर पर कोई मेहमान आवे, आप उसका आदर न करे, तो वह चला जाता है, उसी प्रकार कर्म का उदय आने पर आप विकार करने रूप उसका आदर न करे, तो वह भी चला जाता है अर्थात उसकी निर्जरा हो जाती है। लेकिन अज्ञानी