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कराने से परिणमित नही होती है । तथापि मिथ्यादृष्टि सोचता है, मैं, जैसा चाहू वैसा पदार्थ परिणमन करें तब ठीक हो । सब मेरे मित्र हो, दुश्मन न हो । सब मेरी प्रशसा करे निन्दा ना करे । ससार मे मैं सबसे बडा कहलाऊँ, सब मेरे दास रहे आदि अगणित इच्छा करके दुखी होता है । इसलिए उन्हे यथार्थ मानना और परिणमित कराने से अन्यथा परिणमित नही होगे - ऐसा मानना ही दुख दूर होने का उपाय है । भ्रम जनित दुख दूर करने का उपाय भ्रम दूर करना ही है । सो भ्रम दूर होने से सम्यक् श्रद्धान होता है । वही सत्य उपाय आकुलता मिटाने का है, अन्य नही ।
प्रश्न ७७ – कोई दिगम्बर नाम धराके निश्चय रत्नत्रय १२ वें गुणस्थान में व कोई वे गुणस्थान मे और कोई १३ वे गुणस्थान में बतलाते हैं, क्या यह बात ठीक है ?
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उत्तर - (१) वास्तव मे निश्चय रत्नत्रय की शुरूआत चौथे गुणस्थान से ही होती है। चौथे गुणस्थान मे कषाय की एक चौकडी अभावरूप, पाँचवे मे दो चौकडी अभावरूप, छठे मे तीन चौकडी अभावरूप शुद्ध अश होता है। उतना निश्चय रत्नत्रय होता है । क्रम-क्रम से बढता जाता है । जो जीव उल्टा बोलते है उनका कथन मिथ्या है, क्योकि 'अचिरात् शीघ्र तद्भवे तृतीय भवादी वा अवश्यनियमत समयस्य पदार्थस्य - सिद्धान्तशासनस्य वा सार परमात्मान टोत्कीर्ण स्वभाव विदति-लभते, साक्षात परमात्मा भवतीति यावत् ।' देखिये । निश्चय रत्नत्रय से एक भव, दो भाव या तीन भव मे निर्वाण को प्राप्त होता है ।" यदि ८, १२-१३ वे गुणस्थान मे निश्चय रत्नत्रय हो, तो वहाँ दो भव या तीन भव की बात कहाँ रही ? क्योकि १२१३वा गुणस्थान हो, उसको उसी भव से नियम से मोक्ष हो जाता है । (सर्व विशुद्धि अधिकार कलश ४७ टीका शुभचन्द्राचार्य) (२) निय+सार परमभक्ति अधिकार गाथा 'जो श्रावक व श्रमण सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की उसको भगवान ने निर्वाण की भक्ति कही है ।
१३४ मे लिखा है भक्ति करते हैं,