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जैन सिब्दांत प्रवेश रत्नमाला
पाँचवाँ भाग आत्मस्तवन ४७ शक्तियो रूप मंगलाचरण जीव है अनन्ती शक्ति सम्पन्न राग से वह भिन्न है,
उस जीव को लक्षित कराने 'ज्ञानमात्र' वदन्त है॥२॥ एक ज्ञानमात्र ही भाव मे शक्ति अनन्ती उल्लसे,
यह कथन है उन शक्ति का भवि' जीव जानो प्रेम से ॥२॥ 'जीवत्व' से जीवे सदा जीव चेतता 'चिति' शक्ति से,
'शि' शक्ति से देखे सभी अरु जानता वह 'ज्ञान' से ॥३॥ आकुल नहिं 'सुख' शक्ति से निज को रचे निज 'वीर्य' से,
'प्रभुत्व' से वह शोभता व्यापक है 'विभु शक्ति से ॥४॥ सामान्य देखे विश्व को यह 'सर्वदर्शि'' शक्ति है,
जाने विशेषे विश्व को 'सर्वज्ञता, की शक्ति है ॥५॥ जहँ दीसता है विश्व सारा शक्ति यह 'स्वच्छत्व'11 की,
है स्पष्ट स्वानुभव मयी यह शक्ति जान 'प्रकाश'' की ॥६॥ विकाश मे सकोच नहीं'18 यह शक्ति तेरवी जानना,
नहिं कार्य-कारण'" कोई का है भाव ऐसा आत्म का ॥७॥ जो ज्ञेय का ज्ञाता बने अरु ज्ञय होता ज्ञान मे,
उस शक्ति को 'परिणम्य-परिणामक' कहा है शास्त्र मे ॥८॥ 'नही त्याग-नही ग्रहण'18 बस । निज स्वरूप मे जो स्थित है,
स्वरूपे प्रतिष्ठित जीव की शक्ति 'अगुरूलघुत्व'' है ।।६।। 'उत्पाद व्यय-ध्र व1 शक्ति से जीव क्रम-अक्रम वृत्ति धरे,
है सत्पना 'परिणाम शक्ति' नही फिरे तीन काल मे ॥१०॥