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( २१२ । उत्पन्न होते हैं सब मिथ्यादृष्टि होते है। लेकिन वह वर्तमान मे पुरुषार्थ से मिथ्यादर्शन को समाप्त करके सम्यग्दर्शन प्रगट कर सकते हैं । इसलिए हे भव्य । तू अपनी आत्मा की आराधना कर और अनादिकाल का अनाराधकपना मिटा दे, तो तुझे सुख की प्राप्ति हो। विचार तो कर।
प्रश्न ५-बलवीर्य की हीनता से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-यह जीव अपनी मूर्खतावश अपने वीर्य को ससार के कार्यों मे जोडता है जबकि उनमे तेरा वीर्य जोडना व्यर्थ है। वास्तव मे जो जीव अपना वीर्य आत्म कार्य मे नही जोडता है वह नपुसक है जिसको पुण्य की तथा पुण्य फल की भावना है, वह नपुसक है। स्वरूप की रचना करना वह वीर्य है । विचार तो कर ।
प्रश्न ६-अब क्या करे तो कल्याण का अवकाश है ?
उत्तर-(१) यह अवसर चूकना योग्य नही है । अब सब प्रकार से अवसर आया है, ऐसा अवसर प्राप्त करना कठिन है। ज्ञानी गुरु दयाल होकर मोक्षमार्ग का उपदेश देते है। उसमे भव्य जीवो को प्रवृत्ति करनी चाहिए। (२) यदि इस अवसर मे भी तत्व निर्णय करने का पुरुषार्थ न करे, प्रमाद से काल गमावे, मन्दरागादि सहित विषय कषायो के कार्यों मे ही प्रवत तो अवसर चला जावेगा और ससार मे ही भ्रमण रहेगा। (३) सच्चे देव, गुरु और शास्त्र का भी निमित्त बन जावे, तो वहाँ उनके निश्चय उपदेश का तो श्रद्धान नही करता, परन्तु व्यवहार श्रद्धा से अतत्व श्रद्धानी ही बना रहता है। याद रक्खो-यदि तुम पुरुषार्थ करो तो स्वरूप को प्राप्त कर सकते हो और यदि समय व्यर्थ खो दिया तो अवसर चला जावेगा। __ जीव को धर्म प्राप्ति का पात्र कब कहा जा सकता है ?
उत्तर-(१) जगत मे जो-जो बाते और वस्तुये महिमावान गिनी जाती हैं ऐसा शोभायमान गृह आदि आरम्भ अर्थात् कषायो की प्रवृत्तियो मे चतुर । (२) अलकारादि परिग्रह अर्थात् कषायो के